बीबीसी हिन्दी पर एक रिपोर्ट क्या दुनिया से धर्म ग़ायब हो जाएगा? पढ़ रहा था। मैंने इस रिपोर्ट को पूर्ण रूप से पढ़ा और अंत उस नतीजे पर पहुंचा, जिसके बारे में शीर्षक पढ़कर सोच रहा था। धर्म था, धर्म है और धर्म रहेगा। धर्म का अस्तित्व मिटना असंभव है, हालांकि, मैं धर्म को मानव स्वभाव से जोड़ता हूं, आधुनिक धर्म की परिभाषा से नहीं, जैसे कि हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि।
जब गंगोत्री से धारा निकलती है तो वो स्वयं को समुद्र तक लेकर जाने का रास्ता खोज लेती है, और गंगा विराट रूप धारण करती हुई, अंत समुद्र में विलीन हो जाती है। भूल जाती है, अपनी विराटता को, और गिर जाती है विराट समुद्र में, और समुद्र हो जाती है। समुद्र से बादल बन खेतों खलियानों को भिगोती हुई, गंगोत्री में जाकर फिर से नयी धारा बनती है। यह निरंतर चक्कर चलता रहता है।
हालांकि, इस बात में दो राय नहीं कि समय के साथ साथ गंगा मैली होती जा रही है। शहरों के गंदे नाले इसकी पवित्रता को उस तरह चोट पहुंच रहे हैं, जिस तरह धर्मों में कुछ अधर्मी घुसकर अधर्म फैलाए जा रहे हैं। अगर, गंगा का पानी गंदे नालों के कारण अशुद्ध हो जाए, यदि वो पीने लायक न रहे, या पीने से रोग पनपने लगें तो हो सकता है, लोग आचमन करने से भी डरने लगें। मगर, गंगा के प्रति उनकी श्रद्धा कम नहीं होगी, उनकी आस्था किसी अन्य सुराख से बाहर की तरफ बहने लगेगी। हो सकता है कि 'धारा' शब्द विपरीत रूप धारण करते हुए 'राधा' बन जाए। जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण को रुकमणि से अलग किया जा सकता है, मगर 'राधा' से नहीं, उसी तरह सच्ची आस्था एवं श्रद्धा को भक्त से अलग करना असंभव है, क्योंकि यह मानव का स्वभाव है, जो सदियों पुराना है।
हालांकि, बीबीसी हिन्दी की उपरोक्त रिपोर्ट में गैलप इंटरनेशनल के हवाले से कहा गया है, ''2005 से 2011 के दौरान धर्म को मानने वाले लोगों की तादाद 77 प्रतिशत से घटकर 68 प्रतिशत रह गई है, जबकि ख़ुद को नास्तिक बताने वालों को संख्या में तीन प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।'' जानकारी गैलप इंटरनेशनल के सर्वे में 57 देशों के 50,000 से अधिक लोग शामिल किए गए थे।
रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि जापान, कनाडा, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड्स, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, जर्मनी, फ्रांस, उरुग्वे ऐसे देश हैं, जहां 100 साल पहले तक धर्म महत्वपूर्ण हुआ करता था, लेकिन अब इन देशों में ईश्वर को मानने वालों की दर सबसे कम है।
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इन देशों में शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था काफी मजबूत है। असमानता कम है और लोग अपेक्षाकृत अधिक धनवान हैं। इस बात को समझने की जरूरत है। लोगों के पास धन की कमी नहीं, जो उनकी भोग विलास की जरूरतों को आसानी से पूरा कर रहा है। जब आप अन्य चीजों में व्यस्त होते हैं तो आपको भगवान की छोड़ो स्वयं की स्थिति पता नहीं होती। आप अपने पैरों की उंगलियों को तब तक महसूस नहीं करते, जब तक आपके पैरों की उंगलियां चोटिल न हों। इसका मतलब यह नहीं है कि जब तक चोट न लगे, तब तक आप के पैरों की उंगलियां हैं नहीं। पैरों की उंगलियां हैं, मगर, उनको महसूस करने का समय नहीं है।
इस रिपोर्ट में एक अन्य महत्वपूर्ण बात कही गर्इ है, जो भी समझनी महत्वपूर्ण है। लोगों के भीतर से डर गायब हो रहा है, इसलिए लोग ईश्वर से दूर हो रहे हैं। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि जो लोग केवल डर के कारण ईश्वर को मान रहे हैं, उनके अभय होने के साथ उनका ईश्वर के प्रति प्रेम चला जाएगा। मैंने शुरूआत में ही कहा है कि लोग आचमन करने से भी डरेंगे। उनका उस ईश्वर, परमात्मा, प्रभु, अल्लाह, वाहेगुरू से विश्वास उठेगा, जो कुछ लोगों ने स्वयं की दुकानदारियां चलाने के लिए खड़ा कर दिया है। उससे नहीं, जो सदैव से मौजूद है, जो सर्वव्यापी है।
रिपोर्ट अंत में एक महत्वपूर्ण बात कहती है, ''आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का संकट गहराएगा और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आएगी, पीड़ितों की संख्या बढ़ेगी और धार्मिक भावना में इज़ाफ़ा हो सकता है।'' कितना दिलचस्प अंत है कि रिपोर्ट स्वयं कह रही है धर्म, आस्था लौटेगी।
पहले लोग सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी इत्यादि को पूजते थे, क्योंकि उनकी आस्था उसमें थी। वो उनके प्रति अपना आदर भाव प्रकट करते थे, क्योंकि पूर्ण सृष्टि उससे है। बुद्धि के विकास ने तर्क को जन्म दिया और हमने विकास के नाम पर उस सृष्टि को इतना कष्ट पहुंचाया है कि अब हम को उसके बैक पंच के लिए तैयार तो रहना होगा। डेढ़ वर्ष पहले की उत्तराखंड त्रासदी उसका एक अनूठा परिणाम थी।
अंत में...
यदि जमीन में बीज नहीं हैं, तो बारिश आए या न आए, वो जमीन वैसी ही रहेगी, जैसी है, यदि जमीन में बीज हैं, तो बारिश आने के बाद जमीन हरियाली छोड़ेगी। हर तरफ हरा हरा नजर आएगा। हम बीज के विकास की संभावनाओं को नकार नहीं सकते। हां, इतना जरूर है कि उसके पनपने के लिए सही मौसम का इंतजार करना होगा।
जब गंगोत्री से धारा निकलती है तो वो स्वयं को समुद्र तक लेकर जाने का रास्ता खोज लेती है, और गंगा विराट रूप धारण करती हुई, अंत समुद्र में विलीन हो जाती है। भूल जाती है, अपनी विराटता को, और गिर जाती है विराट समुद्र में, और समुद्र हो जाती है। समुद्र से बादल बन खेतों खलियानों को भिगोती हुई, गंगोत्री में जाकर फिर से नयी धारा बनती है। यह निरंतर चक्कर चलता रहता है।
हालांकि, इस बात में दो राय नहीं कि समय के साथ साथ गंगा मैली होती जा रही है। शहरों के गंदे नाले इसकी पवित्रता को उस तरह चोट पहुंच रहे हैं, जिस तरह धर्मों में कुछ अधर्मी घुसकर अधर्म फैलाए जा रहे हैं। अगर, गंगा का पानी गंदे नालों के कारण अशुद्ध हो जाए, यदि वो पीने लायक न रहे, या पीने से रोग पनपने लगें तो हो सकता है, लोग आचमन करने से भी डरने लगें। मगर, गंगा के प्रति उनकी श्रद्धा कम नहीं होगी, उनकी आस्था किसी अन्य सुराख से बाहर की तरफ बहने लगेगी। हो सकता है कि 'धारा' शब्द विपरीत रूप धारण करते हुए 'राधा' बन जाए। जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण को रुकमणि से अलग किया जा सकता है, मगर 'राधा' से नहीं, उसी तरह सच्ची आस्था एवं श्रद्धा को भक्त से अलग करना असंभव है, क्योंकि यह मानव का स्वभाव है, जो सदियों पुराना है।
हालांकि, बीबीसी हिन्दी की उपरोक्त रिपोर्ट में गैलप इंटरनेशनल के हवाले से कहा गया है, ''2005 से 2011 के दौरान धर्म को मानने वाले लोगों की तादाद 77 प्रतिशत से घटकर 68 प्रतिशत रह गई है, जबकि ख़ुद को नास्तिक बताने वालों को संख्या में तीन प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।'' जानकारी गैलप इंटरनेशनल के सर्वे में 57 देशों के 50,000 से अधिक लोग शामिल किए गए थे।
रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि जापान, कनाडा, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड्स, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, जर्मनी, फ्रांस, उरुग्वे ऐसे देश हैं, जहां 100 साल पहले तक धर्म महत्वपूर्ण हुआ करता था, लेकिन अब इन देशों में ईश्वर को मानने वालों की दर सबसे कम है।
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इन देशों में शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था काफी मजबूत है। असमानता कम है और लोग अपेक्षाकृत अधिक धनवान हैं। इस बात को समझने की जरूरत है। लोगों के पास धन की कमी नहीं, जो उनकी भोग विलास की जरूरतों को आसानी से पूरा कर रहा है। जब आप अन्य चीजों में व्यस्त होते हैं तो आपको भगवान की छोड़ो स्वयं की स्थिति पता नहीं होती। आप अपने पैरों की उंगलियों को तब तक महसूस नहीं करते, जब तक आपके पैरों की उंगलियां चोटिल न हों। इसका मतलब यह नहीं है कि जब तक चोट न लगे, तब तक आप के पैरों की उंगलियां हैं नहीं। पैरों की उंगलियां हैं, मगर, उनको महसूस करने का समय नहीं है।
इस रिपोर्ट में एक अन्य महत्वपूर्ण बात कही गर्इ है, जो भी समझनी महत्वपूर्ण है। लोगों के भीतर से डर गायब हो रहा है, इसलिए लोग ईश्वर से दूर हो रहे हैं। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि जो लोग केवल डर के कारण ईश्वर को मान रहे हैं, उनके अभय होने के साथ उनका ईश्वर के प्रति प्रेम चला जाएगा। मैंने शुरूआत में ही कहा है कि लोग आचमन करने से भी डरेंगे। उनका उस ईश्वर, परमात्मा, प्रभु, अल्लाह, वाहेगुरू से विश्वास उठेगा, जो कुछ लोगों ने स्वयं की दुकानदारियां चलाने के लिए खड़ा कर दिया है। उससे नहीं, जो सदैव से मौजूद है, जो सर्वव्यापी है।
रिपोर्ट अंत में एक महत्वपूर्ण बात कहती है, ''आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का संकट गहराएगा और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आएगी, पीड़ितों की संख्या बढ़ेगी और धार्मिक भावना में इज़ाफ़ा हो सकता है।'' कितना दिलचस्प अंत है कि रिपोर्ट स्वयं कह रही है धर्म, आस्था लौटेगी।
पहले लोग सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी इत्यादि को पूजते थे, क्योंकि उनकी आस्था उसमें थी। वो उनके प्रति अपना आदर भाव प्रकट करते थे, क्योंकि पूर्ण सृष्टि उससे है। बुद्धि के विकास ने तर्क को जन्म दिया और हमने विकास के नाम पर उस सृष्टि को इतना कष्ट पहुंचाया है कि अब हम को उसके बैक पंच के लिए तैयार तो रहना होगा। डेढ़ वर्ष पहले की उत्तराखंड त्रासदी उसका एक अनूठा परिणाम थी।
अंत में...
यदि जमीन में बीज नहीं हैं, तो बारिश आए या न आए, वो जमीन वैसी ही रहेगी, जैसी है, यदि जमीन में बीज हैं, तो बारिश आने के बाद जमीन हरियाली छोड़ेगी। हर तरफ हरा हरा नजर आएगा। हम बीज के विकास की संभावनाओं को नकार नहीं सकते। हां, इतना जरूर है कि उसके पनपने के लिए सही मौसम का इंतजार करना होगा।
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