दिल्ली विधान सभा चुनाव के नतीजों के बाद बदले बदले हैं 'साहेब'। कोई शक! यदि आपको शक है, तो सच में मेरे पास शक का कोई इलाज नहीं है। हालांकि, बदले बदले हैं 'साहेब' जुमले को सही साबित करने के लिए परिस्थितियां सबूत के रूप में रख सकता हूं। और आप अपर्याप्त सबूत कहकर साहेब का बचाव कर सकते हैं क्योंकि आपके पास भी पक्ष रखने का अधिकार है। और आपके अधिकार सुरक्षित हैं।
सबसे पहले जम्मू कश्मीर की बात करते हैं। जम्मू कश्मीर राज्य लगभग पिछले डेढ़ महीने से नई सरकार बनने की राह देख रहा है। हालांकि, अब जम्मू कश्मीर की जनता का इंतजार खत्म होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी अपनी मांगों को ठंडे बस्ते में डालने जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि बीजेपी दिल्ली चुनावों के बाद जम्मू कश्मीर में रिस्क लेने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। ऐसे में समझौता नीति, सबसे उत्तम नीति। हालांकि, दिल्ली चुनावों से पहले भाजपा अपनी मांगों पर अडिंग थी। मीडिया के अनुसार, मुख्यमंत्री बीजेपी का, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट नहीं हटेगा, धारा 370 हटाना इत्यादि बीजेपी की मुख्य मांगें थीं।
अब बात महाराष्ट्र की। जहां सरकार भारतीय जनता पार्टी की है। मगर, दिलचस्प बात तो यह है कि दिल्ली विधान सभा चुनावों के बाद शिवसेना के तेवर काफी तीखे हुए हैं और शिव सेना निरंतर नरेंद्र मोदी पर हमला बोल रही है। माना जाता है कि शिव सेना एलके अडवाणी की पक्षधर रही है। आपको बता देते हैं कि महाराष्ट्र में बीजेपी ने सरकार अल्पमत में बनाई है, जो वो दिल्ली में कर सकती थी, लेकिन अहं के कारण नहीं किया। एक अन्य बात, जब दिल्ली विधान सभा की शानदार जीत के बाद अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में शपथ ग्रहण कर रहे थे, तो नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र के दौरे पर थे, जहां पर उन्होंने एनसीपी प्रमुख शरद पावर के साथ भोज भी किया।
एनसीपी, जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के लिए नेचुरल करप्ट पार्टी थी, अब नेचुरल कंपनीयन पार्टी बन गई है, क्योंकि शिव सेना के पीछे हटते ही, सहारा लेने के लिए एनसीपी की जरूरत पड़ सकती है। याद रहे कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार यदि करप्ट थी, तो उसकी सहयोगी पार्टी एनसीपी पूर्ण इमानदार तो कभी नहीं हो सकती। इसलिए शरद पावर से मिलना नरेंद्र मोदी की उदारता नहीं, बल्कि मजबूरी है। नरेंद्र मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति में न तो कोई सगा होता है और न बेगाना। मजबूरी में सब अपने होते हैं, अच्छे दिनों में सब बेगाने।
चलो बिहार, अबकी बार। दिल्ली विधान सभा चुनावों से पहले बिहार में राजनीतिक संकट उभरकर सामने आया। इसको लोकतंत्र का संहार कह सकते हैं क्योंकि एक साजिश के तहत मुख्यमंत्री को हाइजैक कर उसकी पूरी पार्टी को ध्वस्त करना लोकतंत्र में शोभा नहीं देता। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोला तो आलम कुछ ऐसा बना कि बिहार में विपक्ष अर्थात बीजेपी पक्ष अर्थात जीतन राम मांझी को बचाने के लिए समर्थन देने की बात कहने लगा। हालांकि, पक्ष वाली पार्टी अर्थात जेडीयू अपने मुख्यमंत्री को बरखास्त के लिए निवेदन कर चुकी थी।
हालांकि, दिल्ली विधान सभा चुनाव के नतीजों के बाद तस्वीर बदल चुकी है। बीजेपी के बड़े नेता कहने लगे हैं, वो मांझी को समर्थन नहीं देंगे। और 20 फरवरी के दिन मांझी की अग्निपरीक्षा है। उधर, मांझी भी सुर बदलते हुए कहते हैं कि यदि बहुमत साबित न कर पाया तो पद से इस्तीफा दे दूंगा। यदि बहुमत साबित न कर पाए तो हालत किरण बेदी जैसी होगी, न समाज सेवी बची, न बीजेपी की सदस्य बन पाई। पिछले दिनों बीजेपी ने दिल्ली हार को लेकर बैठक बुलाई, मगर, किरण बेदी को नहीं बुलाया गया, क्योंकि वे बीजेपी की पदाधिकारी नहीं है। जेडीयू का आरोप है कि मांझी का रिमोट बीजेपी के हाथ में है। इसमें दो राय होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि जब जेडीयू अपने विधायकों के साथ बैठक में व्यस्त थी तो मांझी अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर रहे थे।
बीजेपी ने पत्ता को बहुत बेहतरीन खेला था, मगर, नीतीश कुमार की तरह मोहरे के रूप में जीतन राम मांझी को चुनकर बीजेपी ने गलती कर दी है। अब बीजेपी को भी भीतर ही भीतर इस बात का डर लग रहा है कि कहीं किरण बेदी की तरह जीतन मांझी के रूप में खेला गया पत्ता उलटा न पड़ जाए। इसलिए बीजेपी अब इस खेल से बाहर निकलने का प्रयास कर रही है। यदि बीजेपी अब जीतन राम मांझी से पल्लू झटकेगी तो जीतन राम मांझी बीजेपी पर कमिशन देने का आरोप लगा सकते हैं, जो पूरी की पूरी गेम को नीतीश के पाले में पहुंचा देंगे। सफगोई के शौकीन हैं, आखिर हमारे जीतन राम मांझी।
इतना ही नहीं, अब बीजेपी पंजाब को लेकर भी संजीदा होगी, क्योंकि दिल्ली की जीत के बाद आम आदमी पार्टी भले ही एक साल तक कोई चुनाव न लड़ने की बात कह रही हो, मगर, उसके सांसद भगवंत मान एवं आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं की नजर पंजाब विधान सभा चुनावों पर टिक चुकी है।
सबसे पहले जम्मू कश्मीर की बात करते हैं। जम्मू कश्मीर राज्य लगभग पिछले डेढ़ महीने से नई सरकार बनने की राह देख रहा है। हालांकि, अब जम्मू कश्मीर की जनता का इंतजार खत्म होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी अपनी मांगों को ठंडे बस्ते में डालने जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि बीजेपी दिल्ली चुनावों के बाद जम्मू कश्मीर में रिस्क लेने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। ऐसे में समझौता नीति, सबसे उत्तम नीति। हालांकि, दिल्ली चुनावों से पहले भाजपा अपनी मांगों पर अडिंग थी। मीडिया के अनुसार, मुख्यमंत्री बीजेपी का, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट नहीं हटेगा, धारा 370 हटाना इत्यादि बीजेपी की मुख्य मांगें थीं।
अब बात महाराष्ट्र की। जहां सरकार भारतीय जनता पार्टी की है। मगर, दिलचस्प बात तो यह है कि दिल्ली विधान सभा चुनावों के बाद शिवसेना के तेवर काफी तीखे हुए हैं और शिव सेना निरंतर नरेंद्र मोदी पर हमला बोल रही है। माना जाता है कि शिव सेना एलके अडवाणी की पक्षधर रही है। आपको बता देते हैं कि महाराष्ट्र में बीजेपी ने सरकार अल्पमत में बनाई है, जो वो दिल्ली में कर सकती थी, लेकिन अहं के कारण नहीं किया। एक अन्य बात, जब दिल्ली विधान सभा की शानदार जीत के बाद अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में शपथ ग्रहण कर रहे थे, तो नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र के दौरे पर थे, जहां पर उन्होंने एनसीपी प्रमुख शरद पावर के साथ भोज भी किया।
एनसीपी, जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के लिए नेचुरल करप्ट पार्टी थी, अब नेचुरल कंपनीयन पार्टी बन गई है, क्योंकि शिव सेना के पीछे हटते ही, सहारा लेने के लिए एनसीपी की जरूरत पड़ सकती है। याद रहे कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार यदि करप्ट थी, तो उसकी सहयोगी पार्टी एनसीपी पूर्ण इमानदार तो कभी नहीं हो सकती। इसलिए शरद पावर से मिलना नरेंद्र मोदी की उदारता नहीं, बल्कि मजबूरी है। नरेंद्र मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति में न तो कोई सगा होता है और न बेगाना। मजबूरी में सब अपने होते हैं, अच्छे दिनों में सब बेगाने।
चलो बिहार, अबकी बार। दिल्ली विधान सभा चुनावों से पहले बिहार में राजनीतिक संकट उभरकर सामने आया। इसको लोकतंत्र का संहार कह सकते हैं क्योंकि एक साजिश के तहत मुख्यमंत्री को हाइजैक कर उसकी पूरी पार्टी को ध्वस्त करना लोकतंत्र में शोभा नहीं देता। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोला तो आलम कुछ ऐसा बना कि बिहार में विपक्ष अर्थात बीजेपी पक्ष अर्थात जीतन राम मांझी को बचाने के लिए समर्थन देने की बात कहने लगा। हालांकि, पक्ष वाली पार्टी अर्थात जेडीयू अपने मुख्यमंत्री को बरखास्त के लिए निवेदन कर चुकी थी।
हालांकि, दिल्ली विधान सभा चुनाव के नतीजों के बाद तस्वीर बदल चुकी है। बीजेपी के बड़े नेता कहने लगे हैं, वो मांझी को समर्थन नहीं देंगे। और 20 फरवरी के दिन मांझी की अग्निपरीक्षा है। उधर, मांझी भी सुर बदलते हुए कहते हैं कि यदि बहुमत साबित न कर पाया तो पद से इस्तीफा दे दूंगा। यदि बहुमत साबित न कर पाए तो हालत किरण बेदी जैसी होगी, न समाज सेवी बची, न बीजेपी की सदस्य बन पाई। पिछले दिनों बीजेपी ने दिल्ली हार को लेकर बैठक बुलाई, मगर, किरण बेदी को नहीं बुलाया गया, क्योंकि वे बीजेपी की पदाधिकारी नहीं है। जेडीयू का आरोप है कि मांझी का रिमोट बीजेपी के हाथ में है। इसमें दो राय होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि जब जेडीयू अपने विधायकों के साथ बैठक में व्यस्त थी तो मांझी अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर रहे थे।
बीजेपी ने पत्ता को बहुत बेहतरीन खेला था, मगर, नीतीश कुमार की तरह मोहरे के रूप में जीतन राम मांझी को चुनकर बीजेपी ने गलती कर दी है। अब बीजेपी को भी भीतर ही भीतर इस बात का डर लग रहा है कि कहीं किरण बेदी की तरह जीतन मांझी के रूप में खेला गया पत्ता उलटा न पड़ जाए। इसलिए बीजेपी अब इस खेल से बाहर निकलने का प्रयास कर रही है। यदि बीजेपी अब जीतन राम मांझी से पल्लू झटकेगी तो जीतन राम मांझी बीजेपी पर कमिशन देने का आरोप लगा सकते हैं, जो पूरी की पूरी गेम को नीतीश के पाले में पहुंचा देंगे। सफगोई के शौकीन हैं, आखिर हमारे जीतन राम मांझी।
इतना ही नहीं, अब बीजेपी पंजाब को लेकर भी संजीदा होगी, क्योंकि दिल्ली की जीत के बाद आम आदमी पार्टी भले ही एक साल तक कोई चुनाव न लड़ने की बात कह रही हो, मगर, उसके सांसद भगवंत मान एवं आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं की नजर पंजाब विधान सभा चुनावों पर टिक चुकी है।
अंत में.....
साहेब क्रिकेट पर ट्वीट कर रहे हैं। क्रिकेट खेलने के लिए टीम विदेश गई, तो उसके लिए पड़ोसी राष्ट्र को फोन कर बधाई दे रहे हैं। मगर, सार्क समिट में अहं किसी बात का था। जब आमने सामने थे तो नजर मिलाना भी गुनाह समझ लिया। हमने प्रधानमंत्री चुनना है, चौकीदार नहीं, जो पड़ोसी राष्ट्र को फोन कर बताए कि उनकी टीम बाहर खेलने के लिए गई है। क्रिकेट के अलावा हमारे पर भी बहुत काम हैं, और उनके पास भी। संबंध मजबूत खुशी के मौके पर संवेदनाएं प्रकट करने से नहीं, बल्कि दुख की घड़ी में साथ खड़ने से मजबूत होते हैं।
साहेब का फोन गया, उसके कुछ घंटों बाद मस्जिद के बाहर धमाका हुआ, इसमें बहुत सारी जिंदगियां चली गई, क्या अफसोस प्रकट करने के लिए फोन किया। नहीं, ना, क्योंकि उसको कवरेज कहां मिलता है।
साहेब क्रिकेट पर ट्वीट कर रहे हैं। क्रिकेट खेलने के लिए टीम विदेश गई, तो उसके लिए पड़ोसी राष्ट्र को फोन कर बधाई दे रहे हैं। मगर, सार्क समिट में अहं किसी बात का था। जब आमने सामने थे तो नजर मिलाना भी गुनाह समझ लिया। हमने प्रधानमंत्री चुनना है, चौकीदार नहीं, जो पड़ोसी राष्ट्र को फोन कर बताए कि उनकी टीम बाहर खेलने के लिए गई है। क्रिकेट के अलावा हमारे पर भी बहुत काम हैं, और उनके पास भी। संबंध मजबूत खुशी के मौके पर संवेदनाएं प्रकट करने से नहीं, बल्कि दुख की घड़ी में साथ खड़ने से मजबूत होते हैं।
साहेब का फोन गया, उसके कुछ घंटों बाद मस्जिद के बाहर धमाका हुआ, इसमें बहुत सारी जिंदगियां चली गई, क्या अफसोस प्रकट करने के लिए फोन किया। नहीं, ना, क्योंकि उसको कवरेज कहां मिलता है।
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अपने बहुमूल्य विचार रखने के लिए आपका धन्यवाद