Tuesday, July 28, 2015

मातम में आई महिलाओं जैसा सोशल मीडिया

मेरी मां का देहांत फरवरी 2006 को हुआ। उनकी मृत्‍यु का समाचार जैसे रिश्‍तेदारों व परिचितों को मिला। परंपरा के अनुसार महिलाएं घर से चाली पचास कदमों की दूरी से रोना शुरू देती हैं, ऐसे मौकों पर। मेरी मम्‍मी के वक्‍त भी ऐसा हुआ। छाती पिट पिट कर ऐसे रोएं मानो, आज भगवान को जमीं पर लाकर छोड़ेंगी। और मेरी मां के शव में पुन:प्राण फूंकेंगी। दस बीस मिनटों के रोने धोने के बाद घुसर फुसर शुरू हो गई। एक दूसरे की बातें, फ्लां के क्‍या हुआ, तुमने वो सूट कब कहां से खरीदा, तरह तरह की बातें। मेरे कान खड़े के खड़े रह गए। ये तो मेरे ब्‍लैकटेक के टेलीविजन से भी ज्‍यादा तेज हैं, हवा से एनटीना हिला नहीं कि डीडी से सीधा डीडी मेट्रो हो जाता था। कुछ ऐसा ही माहौल सोशल मीडिया पर देखने को मिलता है।

हालिया बात करूं तो भारत के 11वें राष्‍ट्रपति डॉ. एपीजे अब्‍दुल कलाम के देहांत की ख़बर आई, तो सोशल मीडिया विनम्र श्रद्धांजलि, भावभीनि श्रद्धांजलि, झटका लगा, घाटा कभी पूरा न होगा, न जाने क्‍या क्‍या किस किस तरह की भावनाएं से भर गया। मगर, 28 जुलाई 2015 की बाद दोपहर होते हुए सोशल मीडिया चुटकले बनाने लगा, व्‍यंग करने लगा, सीधे प्रत्‍यक्ष वार करने लगा।

एक संदेश आया, भारत सरकार यदि डॉ. अब्‍दुल कलाम को सच्‍ची श्रद्धांजलि देना चाहती है तो 21 तोपों से नहीं, 21 मिसाइलों से दे, और इसका मुंह पाकिस्‍तान की तरफ रखें। यह हास्‍यजनक बात करने वाले कोई और नहीं बल्‍कि वे ही लोग हैं, जो पेशावर के एक स्‍कूल में हुए आतंकवादी हमले पर डिजिटल मोमबत्‍तियां जला रहे थे।

डॉ. अब्‍दुल कलाम को जब पूरा देश सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियां अर्पित कर रहा था तो कुछ लोग मुस्‍लिम समाज पर निशाना साधने में लगे हुए थे। देखो, एक सच्‍चे मुस्‍लिम के लिए पूरा भारत रो रहा है। हालांकि, डॉ. अब्‍दुल कलाम नाम एवं जन्‍म से मुस्‍लिम थे, बल्‍कि कर्म से तो सच्‍चे, नेक दिल इंसान एवं भारतीय नागरिक ही रहे हैं।

जब 27 जुलाई 2015 को देर रात ख़बर मिली कि डॉ. अब्‍दुल कलाम नहीं रहे, तो मुझे बिलकुल झटका नहीं लगा,मुझे कोई हैरानी भी नहीं हुई। मुझे उनकी उम्र का अंदाजा था। और दूसरी बात भारत के कितने लोग हैं, जो डॉ. अब्‍दुल कलाम के साथ हाथ मिलाकर सोते थे। डॉ. अब्‍दुल कलाम तो विचार थे, एक सोच थे, एक कर्म थे, जो न कभी मरते हैं, न कभी मिटते हैं। डॉ. अब्‍दुल कलाम सा देहांत तो नसीब से नसीब होता है। एक कर्मयोगी कर्म करते हुए जिन्‍दगी को अलविदा कहे, इससे अच्‍छा और क्‍या हो सकता है।

हिंदू मुस्‍लिम किसी दूसरे देश में होना लेना दोस्‍तो, अगर भारत में हैं तो डॉ. अब्‍दुल कलाम जैसे नागरिक हो जाए, यह भारत के लोग हैं, धर्म भी पूजते हैं, और कर्म भी।

चलते चलते

27/07/2015 को फेसबुक अपडेट
 
मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम मिसाल बन कर विदा हुए - ऐसी आत्माएं मरती कहाँ हैं - अमर हो जाती हैं - उनके विचार हमारे बीच रहेंगे जो उनके होने का अहसास दिलाएंगे ।।।

भगत सिंह का तो पूरा नहीं हुआ लेकिन 2020 बदलाव आपका सपना पूरा हो जाए तो अच्छा होगा और यह ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी आपके लिए। आप तो मिट्टी के असली हीरे थे।

Wednesday, July 15, 2015

दरअसल, बाहुबली क्‍यों नहीं देखनी चाहिए ?

दरअसल, बाहुबली क्‍यों नहीं देखनी चाहिए ? बड़े अजीब से सवाल के साथ फिल्‍म के बारे में बात करने जा रहा हूं, सही कहा ना। मेरे हिसाब से बात करने का यह सही तरीका है। विशेषकर उस स्‍थिति में जब फिल्‍म की समीक्षा करने की बजाय एक तर्कसंगत बात करने का मन हो।

मैं अपने सवाल पर लौटता हूं, मतलब बाहुबली क्‍यों नहीं देखनी चाहिए? क्‍योंकि इसमें बॉलीवुड का कोई सुप्रसिद्ध सितारा नहीं है। क्‍योंकि इसमें दो अर्थी संवाद नहीं हैं । क्‍योंकि इसमें नंगापन नहीं है । क्‍योंकि इसमें ज्‍यादा तड़का फड़का नहीं है। क्‍योंकि यह सीधी सरल कहानी है। क्‍योंकि यह दक्षिण भारत से आई हिन्‍दी में अनुवादित फिल्‍म है, मूलत हिन्‍दी नहीं है।

यदि फिर भी देखने का मन है, तो देखने के लिए बहुत कुछ है। फिल्‍म की शुरूआत एक घायल रानी से होती है, जिसके हाथ में एक बच्‍चा है, और उसको लेकर नदी में बह जाती है। और अपने प्राण त्‍याग देती है। और वो बच्‍चा छोटे से कबीले के लोगों को मिल जाता है।

यहां से बाहुबली की कहानी शुरू होती है। असल में, ये बच्‍चा बाहुबली नहीं है, ये तो शिवाय है। मगर, लोग इसको बाहुबली कहकर पुकारना शुरू कर देते हैं, जब ये उन लोगों से मिलता है, जो बहुत ऊंचे पर्वतों पर रहते हैं। एक छोटे से कबीले का नवयुवक लोगों के लिए बाहुबली कैसे बनता है, यह जानने के लिए तो फिल्‍म देखनी होगी।

हां, मगर, इस फिल्‍म का अंत आप को फिल्‍म के दूसरे भाग का बेसब्री से इंतजार करने के लिए उत्‍सुक करेगा। फिल्‍म के अंत में आप चौंक सकते हैं, जब महीषमति साम्राज्य का सबसे वफादार व्‍यक्‍ति कटप्‍पा अपने आपको गद्दार घोषित करेगा। मन में सवाल उठेंगे, जो उत्‍सुक करेंगे आगे क्‍या हो सकता है ? क्‍या कारण रहे होंगे कि कटप्‍पा जैसा व्‍यक्‍ति छल करने के लिए तैयार हो गया ?

हिन्‍दी सिनेमा के लिए जारी हुए पोस्‍टरों पर भले राणा दग्‍गुबाती भल्लाला देवा छाया हो, मगर, फिल्‍म का असली नायक प्रभास है। राणा ने तो विलेन का रोल अदा किया है। फिल्‍म के शुरूआती कुछ दृश्‍यों के दौरान आपको ऋतिक रोशन की कमी महसूस हो सकती है, मुझे तो हुई, मगर, प्रभास जल्‍द ही आपको अपने साथ जोड़ लेता है। धीरे धीरे फिल्‍म आपको बांधने लगती है। कुछ दृश्‍य आपकी आंखों को ही नहीं मन को भी छू जाएंगे।

सबसे पहला दृश्‍य रानी का पीछे कर रहे सैनिकों की हत्‍या वाला, और उसके बाद के दृश्‍य जैसे प्रभास का शिवलिंग को उठाना, पर्वतों पर चढ़ना, अवंतिका (तमन्ना भाटिया) को एक सुंदर कन्‍या के रूप में सजाना, बर्फ के पहाड़ पर एक चट्टान को तोड़कर कश्‍ती बनाना, कटप्‍पा का रानी देवसेना (अनुष्का शेट्टी) को रिहाय करते वक्‍त पागल कहना, कटप्‍पा का रानी शिवगामी के कहने पर महल के ऊपर से कूदकर दरबार में आना, शिवाय का महल के भीतर प्रवेश करना, भल्‍लाला देवा के बेटे का सिर कलम करना। ऐसे तमाम दृश्‍य हैं, जो आपकी आंखों में से होते हुए दिल में उतर जाएंगे।


अगर अभिनय की बात करूं तो इस फिल्‍म में राणा दग्‍गुबाती के लिए करने को अधिक कुछ नहीं था, मगर, जो भी उसके हिस्‍से आया, वो ठीक ठीक कहा जा सकता है। प्रभास ने अपने किरदार को बाखूबी निभाया है। रमैया कृशनन, जो शिवगामी के किरदार में हैं, उसका रौबदार चेहरा, चाल डाल, हाव भाव सब कुछ दिल को मोह लेने वाला है। महषिमति के सबसे वफादार कटप्‍पा का अभिनय सबसे प्रभावी कहा जा सकता है। रौबदार चेहरा, फुर्तीला शरीर एवं टाइमिंग सब कुछ गजब का है।

सबसे दिलचस्‍प मजेदार सीनों में से एक काले रंग के कपड़े पहने हुए समूह के साथ महषिमति की सेना का युद्ध। इसको कुछ लोग विदेशी फिल्‍म 300 से प्रेरित कह सकते हैं, मगर, इस सीन को बनाने के लिए जो कल्‍पना की गई है, गजब की है। काले कलूटे लोगों की भाषा भले आपके पल्‍ले न पड़े, लेकिन हर संवाद के बाद जो निक निक टिक टिक की आवाज आती है, मजेदार है।

निर्देशक एसएस राजामौली ने ऐसे कई दृश्य रचे हैं जो लार्जर देन लाइफ फिल्म पसंद करने वालों को ताली बजाने पर मजबूर करेंगे। मक्‍खी, मगधीरा जैसी फिल्‍मों का निर्देशन कर चुके निर्देशक एसएस राजामौली ने सच में बहुत बड़ा जोखिम मोल लिया था, जो शत प्रतिशत सफल होता ही नहीं, बल्‍कि इतिहास रचता हुआ नजर आ रहा है।

मेरी राय के अनुसार, यदि यह फिल्‍म हिन्‍दी में डब न होती, और उस स्‍थिति में इसके रीमेक का जिम्‍मा अगर किसी को सौंपा जाना चाहिए था, तो संजय लीला भंसाली को, और प्रभास के रोल में ऋतिक रोशन, राणा दग्‍गुबाती के रोल के लिए अभिषेक बच्‍चन एवं तमन्‍ना भाटिया के रोल के लिए ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन को चुनना चाहिए था। शिवगामी के रोल के लिए माधुरी दीक्षित को लिया जा सकता था। मगर, अच्‍छी बात तो यह है कि राजामौली ने इस बात की नौबत नहीं आने दी, उन्‍होंने मायानगरी के लोगों को बता दिया कि सौ करोड़ कमाने के लिए केवल बड़े सितारों की भीड़ का होना जरूरी नहीं है।

अंत में, इसके आगे हिस्‍से का इंतजार रहेगा, साथ में एक चिंता भी रहेगी कि अमीष के उपन्‍यास मेलूहा पर बनने वाली फिल्‍म अब इससे कितने कदम आगे होगी, क्‍योंकि मेलूहा उपन्‍यास के अनुसार एक छोटे से कबीले का नेतृत्‍व करने वाला शिवा मेलूहा वासियों का नीलकंठ बन जाता है, जिस तरह इस फिल्‍म में छोटे कबीले का शिवा बाहुबली।

Sunday, July 12, 2015

गजेंद्र चौहान पर इतने लाल पीले क्‍यों हो रहे हैं

महाभारत में युधिष्‍ठर की भूमिका निभाने वाले गजेंद्र चौहान को लेकर कुछ लोग इस तरह तिलमिला रहे हैं, जैसे गली की रामलीला में अभिनय करने वाले को एफटीआईआई का चेयरमैन बना दिया गया हो। आलोचना करने वाले भूल गए कि गजेंद्र चौहान के पास दो दशक से लंबा अनुभव है, अभिनय की दुनिया में, और 160 से अधिक फिल्‍मों एवं 600 के करीब धारावाहिकों में अभिनय कर चुके हैं। फिल्‍म ए ग्रेड की और या बी ग्रेड की, बैनर छोटा हो या बड़ा, इससे अधिक फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है, जब आपको अभिनय नहीं आता।

बॉलीवुड में बहुत सारे युवा अभिनेता हैं, जो बड़े बजटों की फिल्‍मों में काम करते हैं, मगर अभिनय के नाम पर कुछ भी नहीं आता, लेकिन सालों से चल रहे हैं। क्‍या उनको एफटीआईआई का चेयरमैन बना देना चाहिए। बॉलीवुड में हजारों सितारे हैं, मगर, हर सितारा अपने आपको दूसरे से बड़ा समझता है। हो सकता, जो सितारा आपको पसंद हो, दूसरे न भी हो। क्‍योंकि सबकी पसंद एक सी नहीं होती।

गजेंद्र चौहान को बहुत सारे मीडिया वाले जजमेंटल हो चुके हैं, क्‍या गजेंद्र चौहान को काम करने का अवसर दिया, क्‍या उसको अपनी क्षमता साबित करने का अवसर दिया। हो सकता है कि इसमें सरकार ने अपनी मनमानी की हो, हो सकता है कि गजेंद्र चौहान ने अपनी निकटता का लाभ लिया हो, मगर, इस पूरे मामले में जिम्‍मेदारी सरकार की है, और सरकार को पांच साल दे दिए हैं, वो किस को मानव संसाधन मंत्री बनाए, वो किस को विदेशी मंत्री बनाकर भारत की यात्रा करने का अवसर दे, वो सरकार की जिम्‍मेदारी है।

केवल किसी की नपसंद या पसंद पर किसी व्‍यक्‍ति विशेष को बुरे तरीके से नकार देना गलत है। बॉलीवुड के बड़े सितारों को दिक्‍कत हो सकती है, क्‍योंकि गजेंद्र चौहान को यकीनन वो मिला है, जो दूसरों को मिलना चाहिए था, लेकिन सवाल यह है कि जो सितारे विरोध कर रहे हैं, क्‍या उन्‍होंने अपने व्‍यक्‍तिगत जीवन जरूरतों से बाहर निकलकर देश हित में कुछ किया , क्‍या कभी उन्‍होंने ऐसी फिल्‍मों का निर्माण जो देश को नई दिशा में ले जाएं, एफटीआईआई तो केवल कुछ प्रतिभाओं को निखारेगा, जो आगे चलकर करण जौहर, यशराज बैनर के लिए काम करेंगी, और उन को वैसा ही कार्य करना होगा, जैसा बैनर के लोग चाहेंगे।

एक पत्रकार जब कॉलेज से निकलता है, तो उसको लगता है कि उसकी कलम देश का नसीब बदल देगी, मगर, बाद में अनुभव होता है कि उसकी कलम की निब तो मालिक ने निकाल ली है, अब तो केवल पेंसिल से लिखना है, जिसमें से मालिक अपने जरूरत अनुसार शब्‍द रख लेगा, बाकी के रब्‍बर से मिटा देगा।

रविश कुमार मेरे पसंदीदा कलमकारों में से है। टीवी पर तो रविश कुमार हिट हुआ, लेकिन उससे पहले ब्‍लॉग पर बेबाक राय के लिए हिट हुआ। मुझे खुशी हुई, जब एनडीटीवी का चेहरा केवल रविश कुमार बन गया, ऐसा नहीं कि एनडीटीवी के अंदर इसको भी लेकर कभी बहस न चली होगा, इस पर भी उंगलियां न उठी हों, होता है जब कोई भीड़ से निकलकर आता है, और रविश कुमार वो चेहरा है जो भीड़ से निकलकर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुआ।

वरना तो भारत के ज्‍यादातर लोग आजतक, स्‍टार न्‍यूज एवं जी न्‍यूज को ही ए ग्रेड के न्‍यूज चैनल मानते थे, मगर रविश कुमार, और उनके संस्‍थान की सख्‍त मेहनत एनडीटीवी को उस कतार में लाकर खड़ा कर दिया, जहां यह चैनल थे। इन परिस्‍थितियों में यदि रविश कुमार को किसी मीडिया रेगुलेटरी का उच्‍च पद दे दिया जाए तो मुझे इस आधार पर आलोचना करने का कोई हक नहीं होना चाहिए कि रविश कुमार एनडीटीवी में कार्य करते हैं, उनके पास आज तक, जी न्‍यू एवं स्‍टार न्‍यूज का अनुभव नहीं।

अंत, गजेंद्र चौहान को कुछ वक्‍त दो। यदि वे अपनी जिम्‍मेदारियों को निभाने से चूकते हैं तो खुलकर विरोध करो। सबूतों के साथ करो। अभी कुछ समय ठहरो। ठहरना पड़ेगा, क्‍योंकि हमने एक ऐसी सरकार चुनी है, जो किसी की नहीं सुनती, केवल मन की बात कहती है, और मन की बात केवल एक व्‍यक्‍ति करता है, आपको सुननी हो सुनो, नहीं सुननी हो न सुनो। हां, पांच साल बाद बाहर का रास्‍ता दिखा सकते हैं, यदि बातों से उब जाएं, और सरकार अपने प्रदर्शन से चूक जाए।

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