Friday, January 30, 2015

आम आदमी पार्टी से सवाल पूछने का हक किसे और क्यों ?

भारतीय जनता पार्टी की ओर से शुक्रवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के लिए 5 सवालों की दूसरी किश्त पेश की। इस किश्‍त को केंद्रीय वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने पेश किया। सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि भाजपा 5 फरवरी तक हर रोज अरविंद केजरीवाल से 5 नए सवाल पूछेगी। लेकिन, सवाल तो यह है कि आखिर भारतीय जनता पार्टी किस हक से सवाल पूछ रही है ? क्‍या भारतीय जनता पार्टी को सवाल पूछने का हक है ? सबसे हैरानीजनक बात तो यह है कि इसकी दूसरी किश्‍त केंद्रीय मंत्री द्वारा जारी की गई है।  

यह तरीका भी सराहनीय नहीं है। यह केवल सुर्खियों में बने रहने का ढंग है। लोगों का ध्‍यान भटकाने का तरीका है। एक राष्ट्रीय पार्टी जन आंदोलन की कोख से पिछले साल जन्मीं पार्टी से कितने बचकाने सवाल पूछ रही है। बचकानेपन तो मीडिया भी कर रहा है, जो बीजेपी के बेतुके बयानों को महत्व दे रहा है।

बीजेपी का यह कदम सराहनीय कम मद्दा अधिक लगता है, विशेषकर उस समय जब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता गली गली कूचे कूचे नुक्कड़ नुक्कड़ वोट मांग रहे हैं, जनता से सीधा संवाद कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी को जनादेश भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस ने नहीं दिया, बल्‍कि जनता ने दिया है, तो सवाल पूछने का हक भी जनता को है, और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता जनता के बीच घूम रहे हैं।

एक अन्य सवाल, जब अरविंद केजरीवाल ने भारतीय जनता पार्टी के सामने खुली बहस का विकल्‍प पहले से ही रख दिया है तो बीजेपी सुरक्षित कोने में खड़ी होकर क्यों खेल रही है ? क्या भारतीय जनता पार्टी के पास मुद्दे नहीं ? क्या भारतीय जनता पार्टी के पास आम आदमी पार्टी की चुनौती का जवाब नहीं ? भारतीय जनता पार्टी इतने बचकाने सवाल पूछ रही है, जिनका जनता से दूर दूर तक सरोकार नहीं है।

क्या बच्चों की कसम खाकर पलटना राष्ट्रीय गुनाह है ? यदि गुनाह है तो पिछले साढ़े छह दशक के दौरान जो गुनाह राजनेताओं ने किए हैं, उनका जवाब तो पहले बीजेपी एवं कांग्रेस आम आदमी पार्टी के सामने ना सही, लेकिन जनता के सामने तो रखे। इसका तो सीधा सीधा मतलब तो यह हुआ कि आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल की जुबां लोहे पर लकीर, और नेताओं की जुबां पानी पर, और पानी पर खींची लकीर पर सवाल उठाना उचित नहीं है।

मैं यह नहीं कहता भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस पार्टी को अरविंद केजरीवाल से सवाल नहीं करने चाहिए। मैं कहता हूं कि दोनों पार्टियों को मिलकर आम आदमी पार्टी को घेरना चाहिए। मगर, इतने बचकाने सवालों से नहीं। दोनों पार्टियां ठोस मुद्दों पर बात करें। यदि अरविंद केजरीवाल की सामान्‍य बातों पर ही सवाल पूछने हैं, तो कांग्रेस, बीजेपी अपने नेता के चुनावी बयानों का री टेलीकास्ट करे। अपने गिरेबां में पहले झांके। इससे पहले दिल्‍ली भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस दोनों के पास रही है। अरविंद केजरीवाल को तो केवल 49 दिन के लिए दिल्‍ली मिली और उसके लिए अरविंद केजरीवाल को लोक सभा चुनावों में दोनों पार्टियां बहुत कुछ पूछ चुकी हैं। जो अभी पूछ रही हैं, वो सोशल मीडिया पर बैठे किसी पार्टी के भक्‍तों के लिए तो ठीक है, लेकिन राष्‍ट्रीय स्‍तर के नेताओं के लिए वो बचकाने सवालों से अधिक कुछ नहीं है।

एक और बात आम आदमी पार्टी से जवाब मांगने का हक केवल और केवल जनता का है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज कल दिल्‍ली में सबसे अधिक भीड़ अरविंद केजरीवाल की रैलियों में हो रही है। भारतीय जनता पार्टी की किरण बेदी भी भीड़ जुटाने में चूक रही हैं। कांग्रेस का हाल तो जग जाहिर है। आज जो कांग्रेस की स्‍थिति है, पिछले दिल्‍ली विधान सभा चुनावों में वो आम आदमी पार्टी की थी, केवल मीडिया की नजर में। आम आदमी पार्टी को मिलने जन समर्थन ने बड़े बड़े दिग्‍गजों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

यदि अरविंद केजरीवाल भगोड़ा है। यदि अरविंद केजरीवाल पलटीमार है। तो भारतीय जनता पार्टी को घबराने की जरूरत नहीं थी। यदि अरविंद केजरीवाल दिल्‍ली का भरोसा खो चुका था, तो भारतीय जनता पार्टी को किरण बेदी क्‍यों ? यदि जनता को अरविंद केजरीवाल एंड पार्टी पर विश्वास होगा तो वो आम आदमी को वोट करेगी यदि नहीं होगा तो नहीं करेगी।

मगर, बीजेपी किस अधिकार से सवाल कर रही है ? क्या मोदी सरकार ने सौ दिन में काला धन वापस लाने के वादे को पूरा कर दिया ? क्या जम्मू कश्मीर में बाप बेटी या बाप बेटे की पार्टी के साथ मिलकर मोदी की भाजपा सरकार नहीं बनाएगी ? क्या सुभाष चंद्र बोस से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक कर दिए गए हैं ? क्या नशा विरोधी मुहिम को शुरू करने से पहले पंजाब की मौजूदा सरकार से नाता तोड़ लिया गया है ? यह सवाल जनता से जुड़े हैं न कि पारिवारिक सदस्यों की कसम से। शायद यह ही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी अरविंद केजरीवाल की सार्वजनिक बहस की चुनौती को नजरंअदाज करते हुए एक तरफ सवाल दागने पर जोर दे रही है।

अंत में...

दिल्ली जीतने के लिए 250 रैलियां, 120 सांसदों की डियूटी, 13 राज्यों के कार्यकर्ता और दर्जनों मंत्रियों की तैनाती और प्रधानमंत्री की 4 रैलियां। बीजेपी में बेचैनी और अरविंद केजरीवाल के जनाधार का सबूत हैं। अब अगर आम आदमी पार्टी हार भी गई तो अधिक परेशानी की बात नहीं होगी। बीजेपी की तैयारी को देखकर विश्व विजेता बनने निकले सिकन्दर की याद आ गई जो पोरस से जीत कर भी अंत हार गया और वापस लौट गया। भारत को फतह नहीं कर पाया।

Thursday, January 29, 2015

क्‍या आप को पसंद वीआईपी कल्‍चर ?

अगर भारत में कोई गंदा कल्‍चर है तो वो है ''वीआईपी कल्‍चर''। हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि दूर के अंगूर खट्टे। उनका भी अपना तर्क है। वे भी सही हैं कि क्‍योंकि भारत में हर कोई वीआईपी बनना चाहता है। यह विरोधाभास उसी तरह का है, जिस तरह भ्रष्‍टाचार विरोधी समाज बेटी के लिए लड़का देखने जाता है और पूछता है कि लड़के को ऊपर से कमाई होती है या नहीं। किसी भी व्‍यक्‍ति को ऊपर की कमाई से एतराज नहीं, मगर, भ्रष्टाचार से सबको नफरत है।

उसी तरह वीआईपी कल्‍चर है। यह कल्‍चर अच्‍छा नहीं है। मगर, यह कल्‍चर सबको पसंद है। वीआईपी कल्‍चर में हम केवल नेताओं, मंत्रियों को शामिल नहीं कर सकते, यहां के अमीर भी वीआईपी हैं। बड़े बड़े प्राइवेट कार्यक्रमों के साथ साथ अब धार्मिक संस्‍थानों में भी वीआईपी कल्‍चर घुस मार गया। वहां भी साधारण भक्‍त और वीआईपी भक्‍त हो गए हैं।

इस बंटवारे ने राष्‍ट्र को दो हिस्‍सों में बांट दिया एक आमजन और एक वीआईपी। वीआईपी कल्‍चर के खिलाफ एनडीटीवी ने एक मुहिम चलाई है। यह मुहिम कितनी सफल होगी, यह कहना मुश्‍किल है, मगर, रविश कुमार की तस्‍वीर के नीचे लगा स्‍लोगन कहता है, ''आवाज उठाओ बदलेगा इंडिया।''

उस मुहिम की सफलता असफलता पर सवालिया निशान लगाने से पहले कुछ सवाल आप स्‍वयं से पूछें। क्‍या सच में हम भारत बदलना चाहते हैं ? क्‍या हम नहीं चाहते, जब हम ऑफिस जाते समय ट्रैफिक में फंसे हों, तो हमारे साथ सरकार का नुमाइंदा या मंत्री भी खड़ा हो, और उसकी गाड़ी को स्‍पेशल ट्रीटमेंट के साथ न निकाला जाए ? क्‍या हम नहीं चाहते कि जब पुलिस स्‍टेशन जाएं तो पुलिस हमारे साथ उसी तरह का व्‍यवहार करे, जिस तरह मंत्री साहेब के साथ होता है ? क्‍या हम नहीं चाहते कि भगवान के दर्शन के लिए वीआईपी और साधारण भक्‍त के बीच का अंतर खत्‍म हो ?

ऐसा नहीं कि भारत में बदलाव नहीं आए। भारत में समय के साथ साथ बहुत सारे बदलाव आएं हैं। आज का भारत बीते हुए भारत से बहुत अलग है। आज हम युवतियां पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। इतिहास रच रही हैं। आज की महिला पुरुष के पांव की जूती नहीं है।

कल तक लोग पुलिस थानों में भी जाने से डरते थे। पुलिस की गाड़ी गांव में घुसती थी तो लोग घरों में दुबक जाते थे या सड़क किनारे खड़े हो जाते थे। अब वो पहले से हालात नहीं, क्‍योंकि लोगों में जागरूकता आई है। यह जागरूकता ऐसे ही नहीं आई, इसलिए आवाज उठाई गई थी। मैं फिर कहता हूं कि ''आवाज उठाओ बदलेगा इंडिया।'' 

अब एनडीटीवी इंडिया लेकर आया है वीआईपी कल्‍चर के खिलाफ एक मुहिम, क्‍या हम लोग इस मुहिम का हिस्‍सा नहीं बन सकते ? हम दंगा फैलाने वाली भीड़ का हिस्‍सा बन सकते हैं तो इस समाज सुधारक मुहिम का क्‍यों नहीं ? यह मत सोचो कि कौन अगुवाई कर रहा है ? इस सफलता का सेहरा किसके सिर जाएगा ?

अंत में...
बस इतना याद रखिए, ''सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।''

#NoVIP

Tuesday, January 27, 2015

जाते जाते ओबामा भावुक कर गए

अमेरिका के राष्‍ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को मेरा नमस्‍कार। मुझे ख़बर मिली कि आज आप साउदी अरब को निकल चुके हैं। यदि आप रूकते भी तो मैं कौन सा आने वाला था क्‍योंकि उसके लिए भारतीय जनता पार्टी की सदस्‍यता लेनी पड़ती, हालांकि, यह केवल मिसेड कॉल से मिल जाती है। मगर, मिसेड कॉल वाली सदस्‍यता किसी काम की नहीं क्‍योंकि बीजेपी केवल जनाधार वाले या कांग्रेसी नेताओं को पैराशूट से उतारती है। मैं इन दोनों में शामिल नहीं हूं। आपको हंसी आ रही है। मैं चिंतित हो रहा था, कहीं आपको भी दिल्‍ली विधान सभा चुनावों की समाप्‍ति तक भारत में न रोक लिया जाए। आप से अधिक चिंता उन कुत्‍तों की थी, जो आपके सुरक्षा दस्‍तों के साथ आए थे, कहीं लव जिहाद में न पड़ जाएं क्‍योंकि मीडियाई ख़बरों में एक देसी का कुत्‍ता चल रहा था, और आपके विदेशी कुत्‍ते लापता थे। सुना था कि आपकी सुरक्षा व्‍यवस्‍था इतनी कड़ी है कि उसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता, चल छोड़ो, यह तो आम कुत्‍ता था, परिंदा थोड़ी ना।

अतिथि देवो भव: अर्थात "अतिथि भगवान होता है"। शायद, भारत से वापिस लौटते हुए आपको इस बात का एहसास हो गया था। इसलिए आपने अंत में जो 'धार्मिक आधार पर नहीं बंटना चाहिए देश' नसीहत दी, वो बड़ी सराहनीय थी। मगर मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि यह बात आप नरेंद्र मोदी को अकेले में भी कह सकते थे। कहीं यह आइडिया भी उनका तो नहीं था, क्‍योंकि आजकल उनकी कोई सुनता ही नहीं। उनकी एक चेतावनी आती है तो सामने से विपरीत में तीन बयान आ जाते हैं। मानो, महाभारत चल रहा हो। आप एक शक्‍तिशाली तीर छोड़ेंगे तो सामने बचाव में तीन चार तीर एक साथ छोड़ दिए जाएंगे। यह खूबसूरत सुर्खियां बटोरने वाला युद्ध आपके आने और दिल्‍ली विधान सभा चुनाव की घोषणा से पहले बराबरी पर चल रहा था। हमारा मीडिया महाभारत के संजय की भूमिका निभा रहा था। हालांकि, संजय दूरदर्शन की तरह केवल सूचना प्रदान करता था। मगर, आधुनिक संजय मिर्च मसाला डालकर एक टीआरपी वाली चटाकेदार डिश परोसता है, ताकि कई दिनों तक सी सी की आवाज आती रहे।

अब आप तो अपना एयर फोर्स वन लेकर निकल लिए, अब हम ही जानते हैं, आपके रचे आभा मंडल से बाहर आने के लिए हमारे आधुनिक संजय को कितना समय लगेगा। लहसुन प्‍याज की तरह अब आपको हर सब्‍जी में परोसा जाएगा। आपको यकीन न हो तो ऑनलाइन आप हमारे आधुनिक संजयों का प्रसारण सुन एवं देख सकते हैं, क्‍योंकि आप धृतराष्‍ट्र की तरह अंधे थोड़ी न हैं। आपको हंसी आएगी। आपको हमने दिल्‍ली चुनावों में भी घसीट लिया। भारतीय जनता पार्टी की मुख्‍यमंत्री पद की उम्‍मीदवार किरण बेदी ने कहा, बराक ओबामा ऐसे न थोड़ी आते मील दूर से चलकर। जनाब देखते हैं, आप हमारे राजनेताओं को। आप भारत को गरीब देशों में गिन सकते हैं, मगर, राजनीति में इनका तोड़ नहीं है, सच में आपके पास। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट आपके वहां से चलती है, मगर, उस पर चर्चाएं हम करते हैं। यदि आप इंटरनेट पर होने वाली चौपाल चर्चा छोड़ दें, तो तुम्‍हारा मार्क जुकरबर्ग, वो फेसबुक वाला छोकरा, रोड़पति हो जाएगा, आगे से सिर्फ ''क'' निकल जाएगा। ''क'' का महत्‍व समझते हैं आप।

आप भी सोच रहे होंगे कहां दिल्‍ली के चुनाव, कहां मैं व्‍हाइट हाउस का निवासी। जनाबेहुसैन मोदी का बस नहीं चल रहा था, वरना आपका व्‍हाइट हाउस पर भी छीन लें। यदि ग्‍लोबल चुनाव हों और एक व्‍यक्‍ति को ग्‍लोबल का मुखिया नियुक्‍त करना हो तो आप क्‍या सोचते हैं ? कि हमारे प्रधानमंत्री, जो आपको बड़ी गर्मजोशी से मिले, आपको जीतने देंगे। मैं कहता हूं, भूल जाओ। वो आपके देश से छोड़ो, हर देश के साथ ऐसा रिश्‍ता निकालते कि उन देशों की पीढ़ियां भी सोचती रह जाती। माहौल ऐसा बनता कि आप भी अपना एक बहुकीमती वोट नरेंद्र मोदी को देकर कहते, हां, बंदे में दम तो है।

यदि दम न होता तो आप अपनी कड़ी सुरक्षा व्‍यवस्‍था के साथ यहां थोड़ा होते जनाब हुसैन। आपको पता है कि इतनी कड़ी सुरक्षा के लिए भारत को कितना रुपया खर्च करना पड़ता, यदि इतना रुपया खर्च होता तो विपक्ष पगला जाता, जनता तो हमारी भोली भाली है। इसलिए नरेंद्र मोदी ने एक योजना बनाई, आपको आमंत्रित किया। उनको पता था, आप अकेले तो आएंगे नहीं, आप अपना पूरा ताम झाम लाएंगे, जो लेकर भी आए। राजनीति में मोदी का जवाब नहीं, यह बात तो आपको भी समझ आ गई होगी। एक हजार करोड़ खर्च कर आप भारत आए, सुरक्षा इंतजाम का सारा खर्च मिला जुलाकर बात कर रहा हूं। अब सोचो, यहां आकर यदि आप खाली हाथ जाते तो अमेरिका को क्‍या मुंह दिखाते, अंत आप उसी तरह फंसे हुए थे, जिस तरह मैं पहली सूरत की खरीददारी के वक्‍त, मुझे लग रहा था सौदा अच्‍छा नहीं, मगर, तबीयत ख़राब थी, पैसा काफी खर्च हो चुका था, अब सौदे को स्‍वीकृति देने के सिवाय मेरे पास भी कुछ नहीं था। मोदी को कहते हैं, हूं पक्‍का अमदाबादी शूं, अब तो आप भी मान रहे होंगे।

वरना, जितने खुशमिजाज आप आए थे। उतने खुशमिजाज आप जाने के समय न थे। यदि आप अधिक खुश होते, तो आप धर्म वाली नसीहत, साफ सुथरी बिजली, भारत को अपने निवेशकों के लिए अच्‍छी कानून व्‍यवस्‍था बनानी चाहिए इत्‍यादि तो न कहते। आप इतने खुश होते कि कुछ दिन और भारत में गुजारने के बारे में सोचते, यकीनन मोदी ने कहा होगा, कुछ दिन तो और गुजारिए भारत में। आप ने कहा होगा, नहीं नहीं, बस बस। आपके मन में संदेह तो पैदा हुआ होगा, कहीं मोदी से आप से बदले में अमेरिका का व्‍हाइट हाउस न छीन ले। मोदी से आपका डरना प्राकृतिक भी है, क्‍योंकि केशुभाई पटेल, एलके आडवाणी भुलाए नहीं भूलते।

आपने एक ख़बर का जिक्र करते हुए कहा, अब मिशेल ओबामा के अलावा एक और फैशन आइकन आ गया। हम तो अब तक मोदी जी को विकास पुरुष के नाम से जानते थे, आपने फैशन आइकन कहकर उनका कद छोटा कर दिया क्‍योंकि फैशन आइकन लम्‍बी रेस के घोड़े नहीं होते। हमारे यहां बहुत फैशन आइकन आए और चल दिए, क्‍योंकि फैशन गतिशील है। कल को कोई फैशन आइकन आ गया तो मोदी की लूल हो जाएंगे। हमारे जहां कभी धोनी फैशन आइकन थे। तो कभी हनी सिंह यो यो फैशन आइकन बन जाता है। दिल चाहता है के बाद से गजनी तक आमिर ख़ान भी यूथ फैशन आइकन रहे।

मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं, हमारे देश के लिए प्रधानमंत्री के रूप में विकास पुरुष को चुना है, हालांकि, यह दूसरी बात है कि वे व्‍यक्‍तिगत विकास पर ध्‍यान देते हैं। आप ने देखा, आप एक ही कोट सूट में घूमते रहे। हमारे प्रधानमंत्री ने कितने लिबास बदले। आखिर फोटो सेशन भी तो कुछ होता है कि नहीं। आपको हैरानी तो हुई होगी, जब आपने हमारे प्रधानमंत्री को लाखों रुपये की कीमत से तैयार सूट में देखा होगा, जिसपर लिखा था नरेंद्र दमोदर दास मोदी। आपको गुस्‍सा तो आया होगा कि मुख्‍यातिथि मैं हूं, और फूल कवरेज जनाब लेकर जा रहे हैं। आपको बुरा तो तब भी लगा होगा, जब नरेंद्र मोदी ने रूस से रिश्‍ते ख़राब न करने की बात आपको चुपके से कही होगी। गुस्‍सा तो मुझे भी आया था, जब आपने रूस के खिलाफ भारत की जमीं से जहर उगला था, जो आपकी पुरानी आदत है। जब आपने सईद हाफिज के सिर पर इनाम रखा तो घोषणा अपने व्‍हाइट हाउस से करने की बजाय भारत की राजधानी दिल्‍ली से की। बंदूक हमेशा आपकी रहती है, बस कंधा हमारा। आप अमेरिकी बहुत शातिर हैं। मगर, नरेंद्र मोदी को भी कम मत समझना क्‍योंकि वो 130 करोड़ भारत के नागरिकों को टिकाए हुए हैं।

वो जो बोलते हैं, वो करें न करें, लेकिन जो वो बोलते नहीं, वो हमेशा करते हैं, राउड़ी राठौड़ की तरह। इसलिए अधिकतर चर्चा में रहते हैं। मैं आपको धमकी नहीं दे रहा। मैं तो केवल चेतावनी दे रहा हूं। थोड़ा सा संभलकर चलना क्‍योंकि जो दस साल पहले आप ने राजनीतिक जुआ खेला था, अब उस जुए में आपके सामने भारत का सबसे चालाक पत्‍तेबाज बैठा है।

हालांकि, आजकल उनको नाक के तले वाले हिस्‍से की अधिक फिक्र है। हां, दिल्‍ली की। तभी तो उन्‍होंने मन की बात में कहा, ''बेन्जामिन फ्रेंकलिन का जीवन चरित्र हमें यह प्रेरणा देता है कि व्यक्ति को जीवन को बदलने के लिए समझदारी पूर्वक कैसे प्रयास करना चाहिए। मुझे यह बात प्रेरणा देती है कि झुग्गी झोपड़ी में रहने वाला गरीब भी मेरी चिन्ता करता है। मैं अपना जीवन ऐसे लोगों की सेवा में लगा दूंगा।''। अभी कुछ दिन पहले अवैध कालोनियों को वैध किया। सुना है कि यह दिल्‍ली की तीस सीटों को प्रभावित करती हैं। अब देखना तो यह है कि आपकी तरह अंतिम समय फेंके इन पत्‍तों का असर दिल्‍ली पर देखने को मिलता है कि नहीं।

वैसे आप भी कम शातिर थोड़ी न हैं। हमको भी पता चल जाता है कि आप अमेरिका का कचरा भारत में बेचने निकले हैं। आपको पता है, आपके जाने के बाद एनडीटीवी पर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन कहते हैं, 'अमेरिका में न्यूक्लियर एनर्जी का बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है, लेकिन पिछले कुछ वक्त से इसका विस्तार थम सा गया है। वहां कई सूबों में न्यूक्लियर एनर्जी के प्लांट लगाने की कोशिश हो रही है, लेकिन स्थानीय विरोध और रेडियोधर्मी कचरा प्रबंधन जैसे कई मुद्दे आड़े आ रहे हैं। इसलिए पिछले 30-35 सालों से वहां बड़ी कंपनियों के रियेक्टर नहीं बिक रहे।'

तुम चाहते हो। चीन पाकिस्‍तान के साथ चला जाए। इंडिया मीलों दूर वाशिंगटन के साथ जुड़ जाए, उसका पुराना कचरा खरीदने के लिए, रूस को तुम हमसे दूर करना चाहते हो, जिसका साहित्‍य गुलामी के दिनों में हमारा प्रेरक बना। आप बाजार की भाषा बोलते हैं। आपके संवाद बाजार की स्‍थितियों को देखते हुए लोगों की भावनाओं को ध्‍यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। यदि आप शाह रुख ख़ान के इतने बड़े फैन थे, तो आपके एयरपोर्ट पर दो बार इस ख़ान को तलाशी के लिए न रोका जाता, केवल नाम की समानता के चलते। टोपी पहनाने के लिए आप लोगों ने पीआर एजेंसियां खोज रखी हैं। बात अभी भी देख दिखाई तक पहुंची है। लड़के को लड़की पसंद आएगी या नहीं, यह तो आने वाले समय में पता चलेगा। वैसे एक अन्‍य बात आपको बता दूं, आप ने व्यापार बढ़ाने के लिए 3 अरब डालर के लोन देने की घोषणा की, जबकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत में अगले पांच साल में 20 अरब डॉलर और जापान ने 35 अरब डॉलर के पूंजी निवेश की घोषणा की थी।

जय हिंद

Saturday, January 24, 2015

श्रीश्री ने क्‍यों ठुकरा दिया पद्म विभूषण ?

'द इंडियन एक्‍सप्रेस' में पद्म विभूषण के लिए सामने आए संभावित नामों में एक नाम अध्‍यात्‍म गुरू श्री श्री रविशंकर का भी था। बाबा रामदेव ने 'द इंडियन एक्‍सप्रेस' की ख़बर के आधार पर सरकार को पत्र लिखकर पुरस्‍कार लेने से मना कर दिया। इसके पश्‍चात ही श्री श्री रविशंकर जी द्वारा पुरस्‍कार ठुकरा देने की ख़बर मिली। बाबा रामदेव को पद्म विभूषण देने को लेकर विरोधी स्‍वर उठ रहे थे। हो सकता है कि आने वाले समय में अधिक जोर भी पकड़ लेते।

हालांकि, दूसरी तरफ श्रीश्री रविशंकर को सम्‍मानित करने पर लोगों को अधिक एतराज न होता, क्‍योंकि श्रीश्री बाबा रामदेव की तरह राजनीति में खुलकर नहीं आए, वे पर्दे के पीछे से नरेंद्र मोदी को समर्थन करते रहे हैं, उनके संस्‍थान से जुड़े महेश गिरि पूर्वी दिल्ली से सांसद बने और हेमा मालिनी आगरा से।

यदि श्रीश्री पद्म विभूषण को स्‍वीकार करते तो भी मेरे मन में सवाल उठता और नहीं कर रहे हैं तो इस स्‍थिति में भी सवाल तो उठेगा क्‍योंकि उनके वेबसाइट पर उनको मिले सम्‍मानों की एक लम्‍बी फेहरिस्‍त है। यदि श्रीश्री उन तमाम सम्‍मान को स्‍वीकार कर सकते हैं, तो इस सम्‍मान को क्‍यों ? इसका जवाब अंत में देना चाहूंगा।

फिलहाल मैं लौटता हूं, उस स्‍थिति पर यदि वे सम्‍मान लेते तो ? अगर 'द इंडियन एक्‍सप्रेस' की ख़बर अनुसार श्रीश्री के साथ साथ उसी मंच पर पंजाब के मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्‍ठ नेता एलके आडवाणी को पद्म विभूषण से सम्‍मानित किया जाता तो मैं सबसे पहले सरकार से सवाल करता कि पुरस्‍कार का विवरण किस आधार पर किया जा रहा है। इसका मापदंड क्‍या है ? क्‍योंकि एक ही मंच पर एंटी वायरस और वायरस को एक ही पुरस्‍कार से किस तरह सम्‍मानित किया जा सकता है। सवाल तो उठता ? उठना भी चाहिए था।

भले अदालतों ने बाबरी मस्‍जिद गिराने के मामले में भारतीय जनता पार्टी के तमात सीनियर नेताओं को बरी कर दिया हो, लेकिन हजारों लोगों की लाशों के जिम्‍मेदार वे नेता हैं, जिन्‍होंने लोगों के भीतर नफरत का बीज बोया। मस्‍जिद को गिराने के लिए लोगों में आक्रोश पैदा किया। कितने भी सफेद कपड़े पहन लें, यह दाग हमेशा बने रहेंगे, क्‍योंकि एक राम मंदिर बनाने की जद में न जाने कितने पाकिस्‍तान, बंग्‍लादेश में बने मंदिर एक दिन में तुड़वा दिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्‍तान में केवल एक ही दिन में तीस मंदिर तोड़े गए। उस समय हुए दंगों में करीब दो हजार लोगों की जान गई। उसके लिए जिम्‍मेदार नेतृत्‍व करने वाले नेता हैं। प्रकाश सिंह बादल, पंजाब के मुख्‍यमंत्री, जिनकी सरकार के मंत्री एवं करीबी रिश्‍तेदार पर पंजाब में नशा फैलाने का आरोप है। पंजाब नशे की गर्त में है, यह बात किसी से छुपी नहीं, पंजाब का बच्‍चा बच्‍चा शिरोमणि अकाली दल भाजपा गठबंधन से बनी सरकार को जिम्‍मेदार ठहरा रहा है।

उपरोक्‍त तथ्‍यों को ध्‍यान में रखते हुए मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह को सम्‍मानित करना। एलके आडवाणी को सम्‍मानित करना। और दूसरी तरफ उसी मंच पर देश विदेश में प्रेम का सबक पढ़ा रहे एक अध्‍यात्‍म गुरू श्रीश्री को सम्‍मानित करना कहां तक सही होगा ?

अब मैं दूसरे सवाल की तरफ लौटता हूं। आखिर श्रीश्री ने पद्म विभूषण लेने से इंकार क्‍यों कर दिया? ऐसा नहीं कि उनको पुरस्‍कार प्रिय नहीं हैं यदि ऐसा होता तो उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर सैंकड़ों पुरस्‍कारों का बड़ा सा विवरण न होता। उनको पुरस्‍कार प्रिय हैं। मगर, इस समय उनका पद्म विभूषण लेना, उनकी गरिमा को चोट पहुंचाएगा, क्‍योंकि लोक सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और श्रीश्री की निकटता जग जाहिर है। श्रीश्री को 1986 में योग शिरोमणि का पुरस्‍कार भारतीय राष्‍ट्रपति की तरफ से मिला था। उसके बाद भी बहुत सारे देश विदेश से पुरस्‍कार मिले। उन्‍होंने बड़े से छोटे सभी पुरस्‍कार हंसकर स्‍वीकार किए। मगर, पद्म विभूषण को लेकर उनका इंकार करना बताता है कि देश की राजनीतिक पार्टियों ने पुरस्‍कार की गरिमा किस कदर गिरा दी है। यदि आप अटल बिहारी वाजपेयी, मदन मोहन मालवीय को भारत रत्‍न देते हैं, और श्रीश्री को केवल पद्म विभूषण देकर खुश करने का प्रयास करते हैं तो कहीं न कहीं सरकार उनके कद को कम आंक रही है, क्‍योंकि श्रीश्री अध्‍यात्‍म जगत में बेहद सम्‍मानजनक शख्‍सियत हैं। उनको विदेशों से आए दिन सम्‍मान के लिए आमंत्रित किया जाता है। उनको भारत रत्‍न कहा जा सकता है क्‍योंकि उनकी आभा आज विश्‍व के कई देशों को सम्‍मोहित कर रही है।

अंत में...
यदि राजनीतिक पार्टियां यूं ही सम्‍मानजनक पुरस्‍कारों की गरिमा को ठेस पहुंचाती रहेंगी तो शायद इन पुरस्‍कारों का अधिक मोल न रह जाएगा। यह केवल खुशामद एवं समर्थन का रिटर्न गिफ्ट बनकर रह जाएंगे।

मीडिया, राजनीति और लोकतंत्र

भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख अमित शाह ने पटना स्‍थित भारतीय जनता पार्टी के प्रादेशिक कार्यालय में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘‘आजतक का एजेंडा है आप पार्टी को लांच करने और दिल्ली चुनाव में जिताने का.पीत पत्रकारिता का इससे बडा कोई उदाहरण नहीं हो सकता। अमित शाह की इस बात में सच्‍चाई हो सकती है। हो सकता है कि देश का नंबर वन हिन्‍दी न्‍यूज चैनल आज तक आम आदमी पार्टी को दिल्‍ली की सत्‍ता दिलाना चाहता हो।

ऐसा नहीं कि पहली बार किसी ने न्‍यूज चैनल पर अंगुली उठाई है। लोक सभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने भी बहुत सारे न्‍यूज चैनलों पर अंगुली उठाई थी। कुछ साल पहले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्‍ठ नेता एलके आडवाणी ने भोपाल में आयोजित एक समारोह में मीडिया पर अंगुली उठाई थी। किसी ने कहा है कि धुंआं तभी उठता है, जब कहीं आग लगी हो।

इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया किस तरह पक्षपाती हो रहा है। इसका अंदाजा भड़ास डॉट कॉम पर दयानंद पांडे के प्रकट विचारों से लगाया जा सकता है, जिसमें श्री पांडे लिखते हैं, ''इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में टीवी चैनल खुल्लम खुल्ला अरविंद केजरीवाल की आप और नरेंद्र मोदी की भाजपा के बीच बंट गए हैं। एनडीटीवी पूरी ताकत से भाजपा की जड़ खोदने और नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने में लग गया है। न्यूज 24 है ही कांग्रेसी। उसका कहना ही क्या! इंडिया टीवी तो है ही भगवा चैनल सो वह पूरी ताकत से भाजपा के नरेंद्र मोदी का विजय रथ आगे बढ़ा रहा है। ज़ी न्यूज, आईबीएन 7, एबीपी न्यूज वगैरह दिखा तो रहे हैं निष्पक्ष अपने को लेकिन मोदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने में एक दूसरे से आगे हुए जाते हैं। सो दिल्ली चुनाव की सही तस्वीर इन के सहारे जानना टेढ़ी खीर है। जाने दिल्ली की जनता क्या रुख अख्तियार करती है।''

दयानंद पांडे जो चित्र शब्‍दों से उकेर रहे हैं, वो लोक सभा चुनावों के दौरान भी मौजूद था। हालांकि, सत्‍ता विरोधी लहर होने के कारण लोग अधिक ध्‍यान नहीं दे रहे थे। इतना ही नहीं, हालिया आईबीएन 7 से पंकज श्रीवास्‍तव का जाना, आईबीएन 7 की निष्‍पक्ष पत्रकारिता पर सवालिया निशान लगाता है क्‍योंकि इस चैनल का मालिक रिलायंस ग्रुप है, जो पूरी तरह नरेंद्र मोदी से जुड़ा हुआ है, और इस चैनल के एडिटर उमेश उपाध्‍याय हैं, जो दिल्‍ली बीजेपी नेता सतीश उपाध्‍याय के भाई हैं। इसको देखते हुए चैनल के भीतर होने वाली निष्‍पक्ष पत्रकारिता साफ साफ नजर आती है।

पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के नेता भगवंत मान ने ट्विटर पर एक तस्‍वीर जारी की, जो इंडिया टीवी से जुड़ी हुई थी, और इस तस्‍वीर में इंडिया टीवी के वाहन में बैठे कर्मचारी भाजपा का झंडा लेकर सड़क पर चल रहे थे। यदि द इंडियन एक्‍सप्रेस का समाचार सही है तो जल्‍द ही रजत शर्मा को पद्म विभूषण से सम्‍मानित किया जा सकता है। लोक सभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की इंटरव्‍यू से पहले कमर वहीद नकवी का इंडिया टीवी को छोड़ना भी पक्षपाती पत्रकारिता को जग जाहिर करता है। हालांकि, इंडिया टीवी और आईबीएन 7 को लेकर अमित शाह कुछ नहीं बोलेंगे, क्‍योंकि यह चैनल उनके पक्षधर हैं। और उनकी पार्टी सत्‍ता में है।

राजनीति और मीडिया का परस्‍पर बनता संबंध जनमत के लिए घातक है। जनता न्‍यूज चैनलों पर विश्‍वास करती है। और हर किसी का अपना पसंदीदा एवं विश्‍वसनीय न्‍यूज चैनल होता है। हर ख़बर तब तक झूठी सी मालूम पड़ती है, जब तक व्‍यक्‍ति अपने पसंदीदा चैनल पर न देख ले। अगर विश्‍वसनीय मुखबिर ही गलत ख़बर देने लगेगा तो जनमत का हश्र तो हम कल्‍पना के जरिए सोच सकते हैं। झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में जुटे मीडिया हाउस लोकतंत्रिक देश को गर्त में ले जाएंगे क्‍योंकि लोकतंत्र का अस्‍तित्‍व विपक्ष के बिना जिंदा नहीं रह सकता, जिस तरह एक नदी दूसरे किनारे के बिना।

मीडिया और राजनीति को जोड़ने में पीआर एजेंसी नामक बिचौलिए सक्रिय हैं। इनकी सक्रियता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। बिचौलिए जनता की नहीं, अपनी फिक्र करते हैं। पिछले लोक सभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने 714 करोड़ रुपए खर्च किए तो कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपए खर्च किए। यदि दोनों का खर्च जोड़ दिया जाए तो कुल रकम 1230 करोड़ के करीब बनती है और भारत की आबादी केवल 125 करोड़ है। एक अनुमान अनुसार हर भारतीय के बैंक खाते में लगभग 12  रुपए आराम से आ सकते थे। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं, यह पैसा केवल मुट्ठी भर लोगों के घरों में पहुंच गया। और भारतीयों के हिस्‍से विदेशों में पड़े काले धन की वापसी का सुंदर स्‍वप्‍न रह गया, जो शायद ही कभी पूरा हो। इस पैसे का बड़ा हिस्‍सा मीडिया हाउसों में पहुंचा। कुछ विदेशी पीआर एजेंसियां ले गई। पिछले चुनाव भारतीय राजनीतिक पार्टियों ने नहीं, बल्‍कि पीआर एजेंसियों ने लड़े थे। ऐसे में लोकतंत्र क्‍या दशा हो सकती है ? आप स्‍वयं सोच सकते हैं।

अंत में... 
मीडिया और राजनीति के बीच बढ़ती करीबी को रूकना होगा। वरना, मुट्ठी भर लोग अंग्रेजों की तरह देश के नागरिकों की जिन्‍दगियां खा जाएंगे। गरीब के हंसने और रोने पर भी टैक्‍स होगा। स्‍वप्‍न देखने की पाबंदी होगी। कुछ बिजनसमैन हमारा भविष्‍य लिखेंगे। रूस का साहित्‍य चोरी छुपे फिर से सक्रिय होगा। देश एक बार फिर किसी बड़ी क्रांति के लिए भीतर ही भीतर उबलेगा।

Wednesday, January 21, 2015

अन्‍ना हजारे ! अभी भी है कोई जो तुझे बुला रहा है।

नमस्‍कार 

अन्‍ना हजारे जी।
 
देश में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ एवं जन लोकपाल बिल के लिए आंदोलन चलाने वाले अन्‍ना हजारे ने आज राजनीतिक गंदगी से दूर रहने की बात कही है। अन्‍ना श्री, हां मुझे याद है, अन्‍ना हजारे ने अपने सहयोगी अरविंद केजरीवाल के साथ जाने से उस समय भी इंकार कर दिया था, जब आपके सहयोगी सहित अन्‍य आंदोलनकारियों ने राजनीति में घुसकर राजनीति को स्‍वच्‍छ बनाने का संकल्‍प लेते हुए आम आदमी पार्टी बनाने की घोषणा की थी।

हालांकि, कुछ समय बाद ही भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन के अगुआ अन्‍ना हजारे यानी आप पश्‍चिमी बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बैनर्जी के साथ खड़े हो गए। अन्‍ना हजारे का ममता बनर्जी के साथ खड़ा होना सबको चौंका गया। हां, मुझे भी। चौंकाता भी क्‍यों न ? यदि आपको राजनीति में जाना था या उसका समर्थन करना था तो अरविंद केजरीवाल समेत अन्‍य सहयोगियों का समर्थन क्‍यों नहीं किया ?

अन्‍ना हजारे यानी आप ने राजनीतिक गतिविधियों में दिलचस्‍पी रखने वालों को सबसे बड़ा झटका उस समय दिया, जब आप ने ममता बैनर्जी की अगुवाई वाली पार्टी टीएमसी द्वारा दिल्‍ली में आयोजित एक महारैली में अचानक शिरकत करने से मना कर दिया। इस रैली का आयोजन आपके नाम पर किया गया था। इस रैली में आपका शामिल होना बेहद जरूरी था। मगर, आप आए नहीं। विवाद भी हुआ। समय के साथ विवाद लोग भूल भी गए होंगे। सबकी याददाशत मेरे जैसी तो है नहीं। 

उसके बाद अब अन्‍ना हजारे यानी आप उस समय चर्चा में आए, जब आपकी टीम सदस्‍य किरण बेदी ने वीके सिंह की तरह भाजपा को दिल्ली विधान सभा चुनावों से पूर्व ज्‍वॉइन कर लिया और भाजपा ने टिकट देने के साथ साथ उनको मुख्‍यमंत्री प्रत्‍याशी घोषित कर दिया। अन्‍ना हजारे यानी आप से प्रतिक्रिया मांगी गई तो आपने कहा, 'भाजपा को ज्‍वॉइन करने से पहले किरण बेदी ने मुझसे विचार विमर्श नहीं किया। सच तो यह है कि उन्‍होंने मुझे पिछले एक साल से कॉल तक भी नहीं किया।'

अब अन्‍ना हजारे यानी आपका नया बयान आया कि मैं राजनीतिक गंदगी से बचना चाहता हूं। तो मैं अन्‍ना हजारे यानी आप से पूछना चाहता हूं कि आप राजनीति को गंदा कह एक लोकतंत्र की शक्‍ति को गाली क्‍यों दे रहे हैं। यदि आप चाहें तो गंदी राजनीति करने वालों से गुरेज कर सकते हैं। आप राजनीति को गंदी कहकर लोकतंत्र की तौहीन कर रहे हैं। जिस तरह हर शहर में अच्‍छे बुरे लोग होते हैं, उसी तरह राजनीति में भी अच्‍छे बुरे लोग होते हैं।

आपको मलाल हो सकता है कि आपके हिस्‍से कुछ नहीं आया क्‍योंकि बाबा रामदेव की निकल पड़ी। वीके सिंह को भाजपा ने टिकट देकर सांसद बनाते हुए मंत्री पद तक दे दिया। किरण बेदी कुछ दिनों बाद सीएम बन सकती हैं या विधायक बन सकती हैं। आपके सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने स्‍वयं का अलग रास्‍ता चुनकर दिल्‍ली के पूर्व सीएम की मोहर लगवा ली और एक बार फिर से दिल्‍ली के सिंहासन की तरफ बढ़ा रहे हैं। अरविंद पहले की तरह आज भी मैदान में डटे हुए हैं, हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि अरविंद चूक जाएगा और यह उसका अंतिम युद्ध होगा। मैं कहता हूं, जो भी हो, लेकिन अरविंद एक जननेता की तरह मैदान में टिका हुआ है। उसने स्‍वयं का रास्‍ता चुना। अरविंद ने किसी राजनीतिक पार्टी की छात्र छाया में राजनीतिक करियर नहीं बनाया। हो सकता है कि उसका रास्‍ता सही हो या गलत हो। जो भी हो, लेकिन अरविंद उस व्‍यवस्‍था को बदलने के लिए प्रयासरत हैं, जिसको आप राजनीतिक गंदगी कह रहे हैं।

मैं फिर दोहरा रहा हूं। गौर से सुनिए। आप नाक पर रूमाल रखकर कोसते हुए निकल रहे हैं। मगर, अरविंद गंदगी के ढेर को हटाने का प्रयासरत रहे हैं। यह प्रयास काफी हद तक सफल होता नजर आ रहा है क्‍योंकि भारत की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी को अरविंद के सामने गैर राजनीतिक चेहरा उतारना पड़ रहा है। अरविंद की हार हो या जीत, उससे अधिक महत्‍वपू्र्ण बात तो यह है कि वो लड़ रहे हैं, एक बड़ी पुरानी जर्जर हो चुकी व्‍यवस्‍था के खिलाफ। आप महात्‍मा गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं तो नेहरू और सरदार पटेल का साथ देना आपका धर्म होना चाहिए। यदि महात्‍मा गांधी भी राजनीतिक गंदगी से बचने का प्रयास करते तो देश को लोकतंत्रिक सरकार न मिलती।

किसी महान व्‍यक्‍ति ने कहा है कि आपकी मंजिल एक होनी चाहिए। भले ही, उसके लिए रास्‍ते हजार हों। एक चींटी भी पत्‍थर के इधर उधर घूम कर अपनी खड तक पहुंच जाती है। अन्‍ना हजारे अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। एक बार अरविंद केजरीवाल अन्‍ना आंदोलन में जुड़ा था। अब एक बार आप केजरीवाल आंदोलन में जुड़ जाओ। सुबह का भूला शाम को घर लौटे, उसको भूला नहीं कहते। अब उम्र हो चली है। ढलती शाम किसी अच्‍छे आशियाने में गुजर दो। कुछ लोग आए थे, आपका आंदोलन चुराने और चुराकर निकल दिए। अभी भी कोई है, जो लड़ रहा है। अभी भी है कोई जो थप्‍पड़ खा रहा है। अभी भी है कोई जो अंडे खा रहा है। अभी भी है कोई जो तुझे बुला रहा है। 

राजनाथ सिंह - यह कैसा विरोधाभास है ?

'हमारा मीडिया भ्रमित है। वह कहता है कि अमेरिकी वेधशाला बताते हैं सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण किस तारीख को लगेगा... मैं कहता हूं मत देखो वेधशाला की तरफ, पड़ोस में कोई भी पंडित जी होंगे। वह पंचांग खोलेंगे और 100 साल पहले से 100 साल बाद का ग्रहण बता देंगे।'

यह शब्द केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के हैं। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के दौरान कहे। यकीनन, हमारे पंडितों के पास बहुत सारा ज्ञान है।

मगर, राजनाथ श्री यहां तक मुझे याद है। हमारे किस पंडित ने आज तक चंद्रमा पर किसी व्यक्ति को नहीं भेजा और न ही आज तक किस पंडित ने मंगल ग्रह पर जाकर आसन जमाया। आपकी उंगलियों मे पहने रत्न बताते हैं कि आप ज्योतिष विद्या में विश्वास करते हैं। जो करना बुरी बात नहीं है। वैदिक ज्योतिष सदियों से विश्वसनीय है।

मगर, आप के दाहिने हाथ पर सुनहरे रंग की एक घड़ी हमेशा विराजमान रहती है। इस घड़ी सूईयां समय बिताती हैं और घड़ी व्यक्ति का समय बताती है। मैंने कभी घड़ी नहीं बांधी। मेरे घर में बहुत वर्षों तक टाइम पीस भी नहीं हुआ करता था। मगर, मेरी माता सूर्य के ढलते परछाये के साथ समय का अंदाजा लगा लेती थी। मेरे पिता रात को खेतों में पानी लगाते समय तारों को देखकर समय समझ लेते थे। मगर, यह केवल अनुमान होता था। यह पक्की पक्की या सटीक जानकारी नहीं होती थी।

आज आपके हाथ में बांधी हुई घड़ी सटीक समय देती है। आपके बगल में खड़े हुए व्यक्ति की घड़ी से एक दो सेकंड के अंतर से चल रही हो सकती है। मगर, एक दो संकेड का अंतर अधिक मायने नहीं रखता है। मगर, अब मैं शहर में नौकरी करता हूं। मेरे कार्यालय में बायो मैटिक हाजिरी सिस्टम है। मुझे उसके हिसाब से दौड़ना पड़ता है। मेरे पास समय नहीं कि मैं सूर्य के उगने से समय की गणना कर पाउं।

और सबसे दिलचस्प बात तो कहना चाहूंगा कि आज पंडित भी टेक्नो दीवाने हो रहे हैं। आज कल वो भी जन्म कुंडली कंप्यूटर में फटाफट बनाने लगें हैं। हां, जिनके पास अभी तक सुविधा नहीं पहुंची, वो कागज काले कर रहे हों, मैं इस संदर्भ में अधिक कुछ नहीं कह सकता।

भारत में डिग्री आधारित शिक्षा प्रणाली को खत्म कर देते हैं क्योंकि हमारे ऋषियों मुनियों के पास कौन सी डिग्रियां थी। उनकी शिक्षा आज की शिक्षा से बेहतर थी। उनके अनुमान आज के विज्ञान से अधिक सटीक थे। यदि आप डिग्री व्यवस्था को खत्म कर दें तो स्मृति ईरानी को लेकर चल रहा विवाद भी खत्म हो जाएगा। उनकी तरह हम भी पंडित से जाकर पूछेंगे कि हमारे नसीब में प्रधानमंत्री बनना लिखा है या नहीं ?

सुनना है कि हिल्टर को किसी ने कहा था, तुम्हारे हाथों में सत्ता प्राप्ति की लकीर नहीं है अर्थात राज्य योग नहीं। और जिद्दी हिटलर ने चाकू से हाथ पर रक्त से लथ पथ लकीर खींच डाली थी। और लथ पथ धरती पर उसकी हुकूमत की दुनिया गवाह बन गई। आप भारत को किसी तरफ लेकर जाना चाहते हैं। राजनाथ सिंह स्पष्ट करें। 

एक तरफ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी डिजिटल इंडिया देखना चाहता है और एक तरफ आप पुराने रीति रिवाजों में विश्वास करने वाला भारत देखना चाहते हैं। स्पष्ट करो। आप दीक्षांत समारोह में हैं। डिग्री बांट रहे हैं। आप युवा पीढ़ी को संदेश दे रहे हैं। यह किस तरह का विरोधाभास है कि हाथ में घड़ी है या तारों को देखकर समय देखने वाली दुनिया पर नजर खड़ी है। 

Tuesday, January 20, 2015

'द सन' से सीखेगा 'पंजाब केसरी' ?

परिवर्तन समय का नियम है। इस नियम का पालन करते हुए ब्रिटिश टैबलॉयड 'द सन' ने अपनी दशकों पुरानी परंपरा को बंद करने का फैसला किया है। इस अख़बार का पेज नंबर तीन बेहद अश्लील होता था। इस पन्ने पर महिलाओं की टॉपलेस तस्वीरें छपती थी।

'द सन' का मालिकाना हक भी रुपर्ट मर्डोक की कंपनी न्यूज यूके के पास है। इसी कंपनी के एक अन्य समाचार पत्र 'द टाइम्स' की ख़बर अनुसार पिछले शुक्रवार का एडिशन 'द सन' का टॉपलेस तस्वीर छापने वाला आखिरी एडिशन होगा। जानकारी के अनुसार यह परंपरा चालीस सालों से चलती आ रही है। इसका लंबे समय से विरोध भी हो रहा था। इसके आलोचकों को उस समय जोरदार समर्थन मिला था, जब पिछले साल स्वयं मर्डोक ने इसको 'पुराना फैशन' कहा था।

जानकारी अनुसार समाचार में प्रकाशित होने वाली तस्वीरों को लेकर एक याचिका भी जारी की गई थी, जिस पर 2 लाख 17 हजार लोगों ने दस्तखत किए थे। 'नो मोर पेज 3' नाम की यह कैंपेन चलाने वाले लोगों ने अख़बार के इस कदम का स्वागत किया है और कहा है कि यह सराहनीय कदम है।

उम्मीद करता हूं कि पंजाब का सबसे लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र पंजाब केसरी भी 'द सन' से कुछ सीखते हुए अपने विश्व दर्पण एवं फिल्मी दुनिया वाले पन्नों पर परिवार में बैठकर देखने लायक तस्वीरें प्रकाशित करेगा। अब तक हेयर ड्रेसरों की दुकानों एवं कुंवारों के होस्टेल रूमों की शोभा बढ़ाने के लिए काफी कुछ प्रकाशित हो चुका है। पंजाब केसरी को कड़ी टक्कर देने के लिए अन्य समाचार पत्रों ने भी अश्लीलता का खूब सहारा लिया है। यदि पंजाब केसरी अपना नजरिया बदलता है तो शायद अन्य भी बदल लेंगे। एक साफ सुथरा अख़बार मिलेगा। हिन्दी की कुछ समाचार वेबसाइटों को भी कुछ सोचने की जरूरत है। यदि आप केवल नग्नता से पैसा कमाना चाहते हैं तो मधुर कहानियों पैटर्न पर एक अलग से वेबसाइट खड़ी कर दें। मगर, शाकाहारी भोजन के बीच में चिकन रखकर किसी के भीतर उत्सुकता न जगाएं।

अंत में.....
भारत में भी डीबी कार्प ने एक अनूठी पहल की है। इस पहल के तहत दैनिक भास्कर समूह के किसी भी संस्करण में सोमवार को नकारात्मक समाचार को प्रमुखता नहीं दी जाएगी। हालांकि, यह कोशिश आज से कुछ साल पहले वर्ष 2007 में इंदौर से प्रकाशित होने नई दुनिया समाचार पत्र ने सकारात्मक सोमवार के नाम से की थी, जो कुछ सालों बाद एक नए संपादक के आते ही दम तोड़ गई थी।

Sunday, January 18, 2015

पंजाब सरकार का फैसला शर्मनाक

हम किसी धमकी की वजह से अपने तरीके नहीं बदल सकते। हम सिर्फ इसलिए फुटबॉल खेलना नहीं छोड़ सकते कि आतंकी हमले की धमकी दी गई है। अमेरिकी राष्‍ट्रपति बाराक ओबामा का यह बयान उस समय आया था, जब उत्‍तरी कोरिया की धमकी के बाद सोनी पिक्‍चर्स ने अपनी विवादित फिल्‍म 'द इंटरव्‍यू' को रिलीज करने से आना कानी करना शुरू कर दिया था।

अमेरिका राष्‍ट्रपति बाराक ओबामा ने सोनी पिक्‍चर्स के फिल्‍म रिलीज न करने के फैसले की आलोचना की थी। साथ ही कहा था, ''कोई तानाशाह अमेरिका को अपने वश में नहीं कर सकता, वो हमारी अभिव्‍यक्‍ति के अधिकार को क्षीण नहीं कर सकता।''

अमेरिकी राष्‍ट्रपति के इस कड़े स्‍टैंड के पीछे कारण कुछ भी हो, चाहे उत्‍तरी कोरिया के खिलाफ सालों पुरानी दुश्‍मनी ही क्‍यों न हो। मगर, उन्‍होंने आतंकवादी हमले की धमकी के आगे भी घुटने नहीं टेके। इसके विपरीत भारत में सरकार मुट्ठी भर लोगों के सामने घुटने टेक देती है। और मुट्ठी भर अपनी दादागिरी से अधिकारों का हनन करते हैं। शर्म आती है, जब भारत के प्रधानमंत्री या राज्‍यों के मुख्‍यमंत्री बाराक ओबामा की तरह स्‍टैंड नहीं लेते।

इसका ताजा उदहरण पंजाब सरकार का एमएसजी मैसेंजर आफ गॉड को बैन करना है। पंजाब सरकार ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए फिल्‍म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी। इस फिल्‍म को बिना देखे, केवल कुछ लोगों की धमकियों के कारण बैन करना सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है। यह वो ही पंजाब सरकार है, जो चुनावों के दिनों में 1984 दंगों पर आधारित फिल्‍म को दिन रात केबल पर प्रसारित होने के लिए छूट देती है। पंजाब में अकाली दल की सरकार है, जो सीधे तौर पर सिख वोटरों पर टिकी हुई है। ऐसे पंजाब सरकार सिख संगठनों के साथ सीधे तौर पर टकराव नहीं चाहेगी, क्‍योंकि उसके सहयोगी बीजेपी के साथ संबंध अच्‍छे नहीं चल रहे। यदि सरकार इस तरह का कदम नहीं उठती तो उसका वोट बैंक चला जाएगा।

यदि अपने स्‍वार्थ की जद में सरकार अपना राज्‍य धर्म निभाने से चूकने लगेगी, तो देश में कुछ संगठन सरकार से बड़ा कद कर लेंगे, जो आने वाले कल के लिए अच्‍छे संकेत नहीं, विशेषकर उस समय जब भारत की युवा पीढ़ी पश्‍चिमी देशों की तरह आजाद ख्‍यालात के साथ जीने के लिए उत्‍सुक है।

जिस फिल्‍म पर प्रतिबंध लगाया गया है। दरअसल, उस फिल्‍म में डेरा सच्‍चा सौदा सिरसा के प्रमुख संत गुरमीत राम रहीम सिंह ने स्‍वयं अभिनय किया है। सवाल तो यह है कि यदि उनके अनुयायी उनको अभिनय करते हुए देखना चाहते हैं, तो देश के अन्‍य धर्म गुरूओं को इससे एतराज क्‍यों ?

दूसरी बात, जब फिल्‍म को संबंधित विभागों से मंजूरी मिली चुकी है तो विरोध करने वालों को पहले फिल्‍म देखनी चाहिए। यदि कुछ आपत्‍तिजनक सामने आता है तो देश में कानून है, उसका सहारा लेकर कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। इस तरह सड़कों पर उतरकर तनावपूर्ण स्‍थितियां पैदा कर देश के अधिकारों का हनन करना कहां तक उचित है ?

यदि फिल्‍म पंजाब की तरह अन्‍य राज्‍यों के सिनेमा घरों में रिलीज नहीं पाई। तो भी क्‍या ? इसको द इंटरव्‍यू की तरह इंटरनेट के जरिये रिलीज किया जा सकता है। आज इंटरनेट पूरे विश्‍व में फैला हुआ है। फिल्‍म को लेकर खड़े किए जाने वाले विवाद से नैगेटिव पब्‍लिसिटी तो हो रही है। जो फिल्‍म के लिए अच्‍छी बात है। जो नहीं देखने वाले थे, जिनको डेरे संबंधी जानकारी भी नहीं थी, अब वो फिल्‍म को एक बार जरूर देखेंगे। आप किसी को देखने से रोक तो सकते नहीं।

ज्ञात रहे कि विरोधों के बावजूद अंत द इंटरव्‍यू फिल्‍म रिलीज हुई। दर्शकों ने धड़ल्‍ले से डाउनलोड कर देखी। कुछ घंटों में करोड़ों' यूजर्स ने फिल्‍म को डाउनलोड किया। शायद, फिल्‍म को सामान्‍य रूप में रिलीज होने पर उतने दर्शक न मिलते, जितने उसको अब मिल रहे थे। विवादित चीजों को हमेशा अधिक दर्शक एवं पाठक मिलते हैं।

इस मामले में पंजाब सरकार का रवैया बेहद शर्मनाक है। उसकी आलोचना होनी चाहिए। देश के प्रधानमंत्री को इस तरह के मामलों में हस्‍तक्षेप करना चाहिए। अन्‍यथा सोशल मीडिया के जरिया केवल सूचना मिलेगी, "मर गया पेरुमल मुरुगन। वो ईश्वर नहीं कि दोबारा आए। अब वो पी मुरुगन है, बस एक शिक्षक। उसे अकेला छोड़ दो।"

हालांकि, नेताओं से इस तरह की अपेक्षा करना बेईमानी होगी क्‍योंकि भारत के हर राज्‍य की सरकार ने अभिव्‍यक्‍ति का गला घोंटने के लिए समय समय पर किताबों, फिल्‍मों एवं अन्‍य चीजों पर प्रतिबंध लगाएं हैं। आमिर ख़ान की फना भी गुजरात में रिलीज नहीं हो पाई थी।

अंत में
शायद, आज किताबों, फिल्‍मों को विवादित किए बिन बेचना मुश्‍किल सा होता जा रहा है। जब तक आप विवादित नहीं होते, तब तक शायद ख्‍याति भी नहीं मिलती। आधुनिक समय में विवादित शब्‍द लोकप्रियता का समानार्थी बनता जा रहा है।

Friday, January 16, 2015

'बलि का बकरा' बनी लीला सैमसन


सेंसर बोर्ड की प्रमुख लीला सैमसन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फिल्म मैसेंजर ऑफ गॉड को रिलीज की सरकारी मंजूरी मिलने को लेकर उन्होंने इस्तीफा दिया है। जो मीडिया कह रहा है, क्या सत्य है ? मुझे संदेह है। मेरे संदेह का मुख्य कारण पिछले दिनों रिलीज हुई पीके है, जिसका हिंदू संगठनों ने पुरजोर विरोध किया था। इस विरोध में हिंदू संगठनों के निशाने पर फिल्म निर्माता निर्देशक कम और अभिनेता आमिर खान एवं लीला सैमसन अधिक रहीं। उनका विरोध केवल इन दो हस्तियों के खिलाफ ही था। आमिर ख़ान किसी पद पर नहीं हैं, वो स्वतंत्र अभिनेता हैं। मगर, लीला सैमसन सेंसर बोर्ड के पद पर थी। इसलिए उनको आसानी से निशाना बनाया जा सकता था।

एक स्वयंभू हिंदू हितैषी ख़बरिया चैनल तो सीधे सीधे कह रहा था, देखते हैं कि कितने दिन तक लीला सैमसन अपने पद पर बनी रह सकती हैं। संकेत को उस दिन मिल गए थे, मगर, सरकार सीधे सीधे हस्तक्षेप नहीं कर पा रही थी। ऐसे में एमएसजी मैसेंजर ऑफ गॉड को मुद्दा बनाया गया। हालांकि, पीटीआई के अनुसार जब लीला सैमसन से पूछा गया कि क्या उन्हें एफ़सीएटी की मंजूरी के बारे में पता है तो उनका कहना था, '' मैंने ऐसा सुना है लेकिन लिखित तौर पर कुछ भी नहीं पता। फिर भी यह सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ सर्टिफ़िकेशन का मज़ाक उड़ाना है। मेरा इस्तीफा पक्का है। मैंने सचिव सूचना और प्रसारण मंत्रालय को बता दिया है।' इस मतलब साफ है कि लीला सैमसन पहले से मन बना चुकी थी क्योंकि उनके पास अभी तक फिल्म के रिलीज होने संबंधित आधिकारिक जानकारी नहीं पहुंची। मैंने कभी नहीं सुना कि जब सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फैसले को पलटती है तो हाईकोर्ट का जस्टिस अपने पद से इस्तीफा दे देता है। 

हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, लीला सैमसन ने कहा, 'उनके काम में सरकार निरंतर हस्तक्षेप कर रही है।' साथ ही, उन्होंने पीके का नाम भी लिया है। हालांकि, सरकार इस तरह के किसी हस्तक्षेप से इंकार कर रही है। सरकार इंकार करे या न करें। पीके को लेकर जिस तरह का माहौल देश में बनाया गया। और उसके बाद जिस तरह लीला सैमसन को निशाना बनाया गया। पूरा घटनाक्रम बताता है कि देश में कुछ ताकतें किस तरह सक्रिय हो रही हैं। एक अन्य बात एमएसजी किसी देवता या भगवान पर नहीं बनाई गई।  वो फिल्म एक धार्मिक संस्थान के अध्यात्म गुरू ने अपने अनुयायियों के लिए बनायी है। इसमें उन्होंने स्वयं अभिनय किया है। उन्होंने किसी भगवान की वेशभूषा धारण नहीं की, जिसके कारण लोगों की भावनाएं आहत हों। यदि उसका विरोध कुछ संगठन केवल अपने स्वार्थ के कारण कर रहे हैं, तो उनसे सुरक्षा मुहैया करवाने के लिए गृह मंत्रालय को आगे आना चाहिए। यदि फिल्म के कुछ दृश्य किसी धर्म या समुदाय पर कटाक्ष करते हैं तो उन सीनों को हटाया जा सकता है।

अंत में
हरियाणा के डेरा सच्चा सौदा के प्रवक्ता ने कहा, "हमें मिली सूचना के आधार पर एफसीएटी ने फिल्म रिलीज को मंजूरी दे दी है लेकिन लिखित में फैसले का इंतजार है।"

टीम इंडिया 'स्वदेशी' नहीं 'विदेशी ब्रांड' की हुई

जब से नयी मोदी सरकार आई है। तब से देश में धर्म परिवर्तन, घर वापसी, स्कूलों में योग व संस्कृत, गीता का राष्ट्रीकरण, स्वदेशी ब्रांड जैसे मुद्दे उठ रहे हैं। राष्ट्र प्रेम चरम पर है। हर कोई इस पर काम कर रहा है। हालांकि स्वदेशी ब्रांड का प्रचार करने में जुटी एक संस्था को स्वदेशी और विदेशों में अंतर भी पता नहीं है।

उनकी इस गलती को यह कहकर माफ किया जा सकता है कि भारत में सब कुछ चलता है। झूठ के नहीं पांव फिर भी चलता है। पैसे के नहीं पांव फिर भी चलता है। सीबीआई अपनी बात से बार बार मुकर सकती है। यहां चोर भी साध हो सकता है। बस पैसा होना चाहिए।

सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि कुछेक भारतीयों का दूसरा धर्म यानी किक्रेट खेल अब एक विदेशी ब्रांड का प्रचार करता नजर आएगा। नाइक स्टार ने भारतीय क्रिकेट टीम को नई जर्सी उपलब्ध करवाई है क्योंकि सहारा के बाद नाइट स्टार इंडिया क्रिकेट टीम की प्रायोजित कंपनी है।

शायद, सहारा के बाद भारत में ऐसा दूसरा स्वदेशी समूह नहीं था, जो भारतीय टीम को प्रायोजित कर लेता, इसलिए विदेशी का सहारा लेना पड़ा है। मगर, मुझे लगता है कि इस संबंध में बाबा रामदेव से बातचीत करनी चाहिए थी। उनका पतंजलि ब्रांड आज भारत के कोने कोने में पहुंच चुका है। और उनका कारोबार 20 हजार करोड़ का हो चुका है। एक भारतीय क्रिकेट टीम को संभालने वाले बोर्ड की कीमत से आसानी से लग सकती है।

हालांकि, विदेशी का सहारा लेना बुरी बात नहीं, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी ब्रांड में बिलीव करती है। उसको ब्रांड लुभावते हैं। इस बात का फायदा देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। और स्वयं को एक ब्रांड के रूप में स्थापित किया। नरेंद्र मोदी का नमो होना, इसका सबूत है। अबकी बार मोदी सरकार, टैगलाइन है। किसी उत्पाद की टैगलाइन गजब की होनी चाहिए।

मगर, उनका क्या होगा, जो विदेशी मोबाइल से विदेशी सोशल चैट मैसेंजर के जरिये संदेश भेजकर स्वदेशी अपनाओ का नारा मार रहे हैं। देश के प्रधानम़ंत्री एक तरफ खादी का आह्वान करते हैं, दूसरी तरफ विदेशी निवेशकों को पटाने के लिए गुजरात वाइब्रेंट का आयोजन करते हैं और टैलिप्राम्प्टर के जरिये इंग्लिश स्पीच पढ़ते हैं। कागज का इस्तेमाल क्यूं नहीं किया गया। एक विदेशी पद्धति को अपनाने की क्या जरूरत थी, शायद यह बताने के लिए हम भी ओबामा से कम नहीं हैं ? हो भी नहीं सकते, क्योंकि नमो ब्रांड का प्रचार एक विदेश संस्था के हाथ में जो है, जो ओबामा के लिए कार्यरत थी।

वैसे अगले महीने दिल्ली चुनाव के बाद भारतीय अधिक समय टेलीविजन के सामने होंगे। कुछ रेडियो के साथ चिपके होंगे। घर के ड्राइं​ग रूम में बैठकर भारतीय टीम की कमियों पर चर्चा की जाएगी। टेलीविजन की स्क्रीन में घुसने के लिए जोर मारा जाएगा।

उम्मीद होगी कि विदेशी धरती पर महेंद्र धोनी एंड कंपनी भारत का ध्वज लहराकर आए। विश्व को बताया कि दुनिया में भारत से बेहतर क्रिकेट टीम मिलना मुश्किल है। हालांकि, भारत ने हॉकी में अपना वर्चस्व गंवा दिया है।

अंत में

भारतीय टीम की नयी जर्सी का फर्स्ट लुक बीसीसीआई ने अपने ट्विटर अकाउंट के माध्‍यम से जारी किया है। ट्वीट में एक फोटो हैं जिसमें कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धौनी सामने खड़े नजर आ रहै हैं। उनकी जर्सी पर नाइक का लोगो एवं स्टार इंडिया लिखा हुआ है।

फोटो में धोनी के साथ रविंद्र जडेजा, सुरेश रैना, रोहित शर्मा ,विराट कोहली, आर अश्‍विन ,शिखर धवन जैसे भारतीय क्रिकेट टीम के स्टार नजर आ रहे हैं। यह जर्सी भी पहले की तरह ही नीले रंग की है।

इससे पहले दिसंबर में ही स्टार इंडिया प्रा लि को तीन साल के लिए भारतीय क्रिकेट टीम के प्रायोजन अधिकार सौंप दिए गया था। प्रायोजक सहारा की बोली को बीसीसीआई ने अयोग्य घोषित कर दिया था।
 

Wednesday, January 14, 2015

कटरीना, काटजू और मीडिया

कटरीना कैफ को राष्ट्रपति बनाने की सलाह देते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और प्रेस परिषद् के पूर्व चेयरमैन जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जो हमारे राजनेताओं पर तंज कसा है। उसको समझने की जरूरत है।

हालांकि, मीडिया ने इसको केवल टीआरपी के लिए इस्तेमाल कर लिया क्योंकि उसको लगा कि काटजू ने बॉलीवुड अभिनेत्री कटरीना कैफ को देश का राष्ट्रपति बनाने की सलाह दी है।

आज का दिन कटरीना कैफ की खूबसूरत फोटोओं के क्लोज बनाए जाएंगे। एक तरफ काटजू का फोटो हो सकता है,जिसने कटरीना कैफ के खूबसूरत कहा। भले ही, मीडिया उसको कातिल अदाओं वाली कहकर पुकारता हो, क्या फर्क पड़ता है।

मीडिया की सोच ख़बर को इस तरह परोसेगी कि काटजू का व्यंग या तंज इसमें दबकर रह जाएगा। सच कहूं तो मीडिया ने मार्कंडेय काटजू के साथ विवादित शब्द जोड़ देना चाहिए क्योंकि मीडिया उसी अंश को उठाता है, जहां कुछ विवादित होने का संदेह उत्पन्न हो रहा हो।

हालांकि काटजू ने लिखा है, 'मैं चुनाव में हमेशा से ही सुंदर महिलाओं जैसे कि फिल्मी अभिनेत्रियों के चयन का समर्थन करता हूं। ऐसा इसलिए क्योंकि नेता हमेशा चांद दिलाने की बात करेंगे लेकिन कभी जनता के हित का काम नहीं करेंगे।'

आगे लिखते हैं 'चूंकि आपको किसी न किसी का चुनाव तो करना ही है तो क्यों नहीं कम से कम सुंदर चेहरे के लिए वोट दिया जाए। कम से कम मीडिया में उस सुंदर चेहरे को देख कर आपको क्षणिक खुशी तो होगी। नहीं तो आपको अंत में ऐसे तो कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।'

काटजू ने अपने ब्लॉग की शुरूआत में लिखा है कि पिछले दिनों क्रोएशिया में एक सुंदर महिला राष्ट्रपति बनी हैं। आर्थिक रूप से बीमार क्रोएशिया जब मिस ग्रैबर किटरोविक को अपना राष्ट्रपति बना सकता है तो हम क्यों नहीं?

भारतीय नेताओं पर यह तंज खूब जमता है। कोरी बातों के अलावा अब तक हमको मिला ही क्या है ? चुनावों के दिनों में वादों की बौछार होती है। चुनावों के बाद जनता की किसी नेता को दरकार होती है।

जनता बेचारी सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटती रहती है। हमारी फाइलें एक टेबल से दूसरे टेबल तक जाने के लिए गांधीछाप का इंतजार करती हैं। सरकारी कार्यालय का सेवादार भी अपने आपको देश के प्रधानमंत्री से कम नहीं समझता। उसके उच्च अधिकारियों के आगे साहिब शब्द तो अपने आप जुड़ जाता है।

यदि ऐसी परिस्थितियों में चेहरा भी खूबसूरत न हो तो मुश्किल अधिक हो जाती है। काम निकलवाने के लिए चक्कर काटने पड़ते हैं। बेढबे चेहरे देखने पड़ते हैं। हालांकि, हम समझ सकते हैं कि खूबसूरती के आधार पर हम उच्च पदों का बंटवारा नहीं कर सकते।

फिर भी यह एक तंज था। हमारी राजनीति पर। इसको उसी रूप में समझना चाहिए। हालांकि, समस्या यह है कि लोग अपनी समझ के अनुसार उसका अर्थ बना लेते हैं। मगर, जब मीडिया ​अर्थ निकालता है तो उसका प्रभाव दूर तलक जाता है। इस बात को समझना अति जरूरी है।
 
अंत में....
हां, यदि काटजू की जगह महिला होती तो शायद किसी अभिनेता का नाम लेती। वो अक्षय कुमार, सलमान खान, शाहरुख खान, आमिर खान, अजय देवगन, रणबीर कपूर हो सकता था। सुंदरता का पैमाना भी अपना अपना होता है।

साक्षी महाराज के नाम पत्र

नमस्कार

एक औरत खड़ी है, 26 - 27 वर्ष की , तुम कहोगे, लड़की कहो। मैं कहूँगा, ठहरो ! आप पूरा वाक्य सुनें। उसके अगल बगल में गोद चढ़े दो बच्चे हैं। तीसरा उसके उभरे हुए पेट से मुझे आने का संकेत दे रहा है। उसकी ऊँगली पकड़े लिफ्ट राईट में दो शहर की स्लम बस्ती से गंदे मटमैले कपड़े पहने बच्चे खड़े हैं। यह दृश्य इंदौर के पलासिया चौराहे का , बठिंडा के हुनमान चौंक का, अहमदाबाद के इनकम टेक्स सर्किल का या दिल्ली के चाँदनी चौंक का है, यह पक्का पक्का याद नहीं, हाँ इतना पक्का है कि यह भारत के किसी शहर का है। और सच में यह महान चित्रकार पाब्लो पिकासो की कल्पना से उपजा चित्र नहीं है। हाँ, शत प्रतिशत सत्य है।

यदि आपको संदेह हो तो आप हाथ पर हाथ मारकर मुझ से शर्त लगा सकते हो। बस आपको मेरे साथ चलना होगा। हो सकता है कि आपको लगे मैं आपको अपने द्वारा तैयार किये नाटक दिखा दूँ। और आप हार जाएँ। तो आप के लिए एक और विकल्प है। हाँ । है ।

आप भारत का कोई सा भी महानगर चुनें। और आप उस महानगर के निम्न स्थलों का दौरा करें। किसी व्यस्त सर्किल का । किसी मंदिर का । किसी रेलवे स्टेशन का।

आपको जीवंत दृश्य देखने को मिल जायेगा। हाँ। मेरी शर्त है । शर्त अर्थात कंडीशन । आप इस दृश्य की नायिका से एक बच्चा सेना के लिए। एक बच्चा संन्यासी के लिए। दो को स्कूल छोड़ने के लिए ले लेना और महिला को हॉस्पिटल छोड़ आएं - परिवार नियोजन के लिए। और इसको समझाना के भगवान का प्रसाद सीमित होता है।

इससे एक और समस्या से बच जाएँगे। आप को बीजेपी कारण बताओ नोटिस जारी नहीं करेगी। एक मिसेड कॉल करवा बीजेपी की मेम्बरशिप दिलवा देना। 

एक अन्य बात यदि इनके पास आप से पहले कोई ईसाई पहुँच गया तो इसके लिए जिम्मेदार आप होंगे।

अभी मैं उसी जगह लौट रहा हूँ। जहाँ मैं हूँ। अपनी आँगन वाली खटिया पर। जहां सूर्य की रौशनी मेरे माथे के बीचोबीच पड़ रही है। मेरा ज्ञान चिक्षु रौशन हो उठा है।

मुझे आसमान में उड़ रहे पतंगों की सर सर आवाज़ आ रही है। आज उत्तरायन है। गुजरात में पतंग उड़ते हैं, इस दिन। 

राम राम

Tuesday, January 13, 2015

पेरिस जनाक्रोश - 'शार्ली एब्दो' के पक्ष में नहीं, 'इस्लामी चरमपंथ' के विरोध में

विश्व में फ्रांस का पेरिस शहर प्रेम का प्रतीक है। उसी तरह जिस तरह ज्योतिष में शुक्र ग्रह। पिछले दिनों पेरिस की सड़कों पर जनाक्रोश देखा गया। लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे। हालांकि, इसको 'शार्ली एब्दो' के पक्ष में देखा जा रहा है, क्योंकि कुछ दिन पहले 'शार्ली एब्दो' को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था।

मुझे लगता है कि यह जनाक्रोश केवल शार्ली एब्दो पक्ष में नहीं, बल्कि इस्लामी चरमपंथ के विरोध में था क्योंकि इस जनाक्रोश में बड़ी तादाद में ऐसे लोग थे, जो इस्लामी चरमपंथ के विरोध में तो थे, लेकिन शार्ली एब्दो के द्वारा प्राकाशित किए जाने वाले पैगम्बर के अश्लील कार्टूनों के हिमायती नहीं थे।

इसमें दो राय नहीं कि शार्ली एब्दो के कार्टून काफी आपत्तिजनक थे। इसलिए उनका भी विरोध होना उतना ही जरूरी है, जितना इस्लामी चरमपंथ का। 'इस्लामी चरमपंथ' जो काम अपने हथियारों से करता है, वो ही काम शार्ली एब्दो अपनी कलम से कर रहा है। दोनों ही समाज में नफरत को फैला रहे हैं। हालांकि, तरीके अलग अलग हैं।

यदि शार्ली एब्दो पैगम्बर को अलग कर अपने युद्ध को इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ जारी रखता है तो उसके प्रयास को सराहनीय कदम कहा जा सकता है। यदि वो अपनी जिद्द पर अडिंग रहते हुए इस्लामी चरमपंथ के साथ पैगम्बर को भी बीच में रखता है तो इससे शायद उन मुस्लिम लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचेगी, जो पेरिस में हुए जनाक्रोश का हिस्सा हैं। जो कह रहे थे, हम मुस्लिम हैं, लेकिन आतंकवादी नहीं। या उस नौजवान को जो कह रथ था, जिन्होंने मेरे भाई को मारा, वो नकली मुस्लिम हैं।

हालांकि, भारत एवं पाकिस्तानी मुस्लिम समुदाय ने इस्लामी आतंवाद के खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा। हैरानी तो तब होती है, जब हाजी याकूब कुरैशी जैसे नेता चरमपंथ का हिस्सा बने नौजवानों को सम्मानित करने की बात कह डालते हैं। शार्ली एब्दो पर हुए हमले को मुस्लिम दबी आवाज में इसलिए भी सही मानते हैं, क्योंकि शार्ली एब्दो ने पैगम्बर के अश्लील कार्टून भी प्रकाशित किए थे, जो उसको नहीं करने चाहिए थे। बात रखने के तरीके होते हैं, मगर सभी सीमाएं लांघकर अश्लीलता पर उतर आना भी अभिव्यक्ति नहीं कहलाता है।

पाकिस्तान तो पेशेवर हमले के बाद भी अच्छे बुरे आतंकवाद की पहेली से बाहर नहीं निकल पा रहा है। हैरानी तो उस समय भी हुई थी, जब लाल मस्जिद के मौलवी ने पेशावर बाल संहार की आलोचना करने से टेलीविजन पर साफ मना कर दिया था। वहीं, पश्चिमी मुस्लिम समुदाय के लोगों ने एकजुट होकर इस्लामी चरमपंथियों को संदेश दिया है कि इस्लाम तथा इस्लामी चरमपंथ में अंतर है। यह प्रतिक्रिया उसी तरह की है, जिस तरह भारत के हिंदू अपने चरमपंथी गुटों के प्रति प्रकट करते हैं।

आतंकवाद एवं मजहब को एक पलड़े में नहीं रखा जा सकता। एक समय सिख धर्म पर भी आतंकवाद का मार्का लग गया था। मगर, उसी धर्म के कुछेक लोगों ने सिख धर्म पर लग रहे आतंकवाद के ठप्पे को धो डाला। अब वैसा ही कदम इस्लाम के अनुयायियों को उठाना होगा। पेरिस का जनाक्रोश तो इस्लामी समुदाय के लिए एक शुरूआत है। इस शुरूआत को आगे बढ़ाना चाहिए। इस्लाम एवं इस्लामी चरमपंथ को अलग करना चाहिए। साथ ही, मीडिया को, विशेषकर शार्ली एब्दो जैसे मीडिया संस्थान को नफरत फैलाने वाली समाग्री प्राकाशित करने से बचना चाहिए।

हालांकि, एक समाचार के मुताबिक शार्ली एबदो मैगजीन के वकील ने सोमवार को जानकारी दी पत्रिका के आने वाले एडिशन में पैगंबर मोहम्मद के रेखाचित्र और कार्टून प्रमुखता से छापे जाएंगे। मैगजीन के कॉलमनिस्ट पैट्रिक पेलक्स ने कहा कि यह इश्यू बुधवार को आएगा। खास बात यह है कि इस मैगजीन को 16 भाषाओं में दुनियाभर में रिलीज किया जाएगा। फ्रांस को इसके संबंध में कड़े कदम उठाने चाहिए, क्योंकि अभिव्यक्ति के नाम पर आप कुछ भी नहीं छाप सकते क्योंकि कहीं न कहीं, इससे एक बड़े जन समूह की भावनाएं जुड़ी हैं। और इससे सौहार्द बिगड़ता है, बनता नहीं है।

अंत में...
पेरिस के मार्च की विशेष बात यह थी कि उसमें विश्व के लगभग 40  देशों के राष्ट्राध्यक्ष या उनके प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इनमें ज्यादातर पश्चिमी देशों के राष्ट्राध्यक्ष ही थे,  लेकिन नाइजीरिया और फलस्तीन जैसे देशों के प्रमुख भी शामिल हुए। शार्ली एबदो  पर हमले की इतनी बड़ी प्रतिक्रिया से यह तो साफ होता ही है कि इस हमले ने दुनिया के प्रगतिशील और उदार तबकों को बुरी तरह हिला दिया है।

Monday, January 12, 2015

oxl का "इमोशनल अत्‍याचार"

''आपके पति को एक तरह के घर्राटे आते होंगे। मेरे पति को पांच तरह के घर्राटे आते हैं। यदि आपके घर में पुराना सोफा है तो oxl पर डाल दें। हमारा ड्राइंग रूम खाली पड़ा है।'' एक घर्राटेबाज पति की दुखी पत्‍नी की कहानी सुनाते हुए oxl आपको अपना पुराना सोफा बेचने की अपील करता है। यह oxl का इमोशनल अत्‍याचार नहीं तो क्‍या है ?

दरअसल, 'इमोशनल अत्‍याचार' कौन नहीं करता। हालांकि, तरीके अलग अलग होते हैं। यदि पहली बेटी के बाद महिला जल्‍दी जल्‍दी दूसरे बच्‍चे के लिए कमर नहीं कसे तो परिवार की तरफ से इमोशनल अत्‍याचार शुरू हो जाता है। और अत्‍याचार के आगे महिला को घुटने टेकने पड़ते हैं। इस महिला की दुविधा यह है कि यह oxl पर आपको पुराना बच्‍चा डालने की अपील नहीं कर सकी। आखिर मामला खून का है। खानदान के वारिस का है। विवाहित महिलाओं पर इमोशनल अत्‍याचार तो उस समय भी सीमा पार कर जाता है। जब कोई साध्‍वी बिना मां बने, महिलाओं को चार चार बच्‍चे पैदा करने की सलाह देती है।

चुनावों के दिनों में नेता इमोशनल अत्‍याचार करना शुरू कर देते हैं। हालांकि, अत्‍याचार तो नेता अक्‍सर करते हैं। चुनावों के बाद उनकी गैर मौजूदगी सबसे बड़ा अत्‍याचार होता है। इस अत्‍याचार के खिलाफ आवाज उठाएं तो सरकारी प्रशासन का अत्‍याचार सहना पड़ता है। कोई अपने हारे हुए नेता को oxl पर भी नहीं डालेगा क्‍योंकि उनको पता है कि पुराने कैलेंडर की तरह निठल्‍ले नेता को कोई नहीं खरीदेगा। जो जीता हुआ है, उसको खरीदना, oxl के ग्राहकों की पहुंच में नहीं है।

अंत में.....
गोवा के मंत्री रमेश तावड़कर ने कहा है कि राज्य सरकार ऐसे सेंटर बनाने की तैयारी कर रही है, जहां समलैंगिक युवाओं का इलाज कर उन्हें 'सामान्य' बनाया जाएगा। तावड़कर ने राज्य सरकार की युवा पॉलिसी की घोषणा के दौरान यह बात कही। कहीं यह भी तो समलैंगिक युवाओं पर इमोशनल अत्‍याचार तो नहीं है।

Sunday, January 11, 2015

'पीके' गया अब 'गोपाला गोपाला' ओह माय गॉड !

आमिर ख़ान अभिनीत फिल्‍म पीके ने सफलता के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। बॉलीवुड में सफलता फिल्‍म का पैमाना सौ करोड़ का क्‍लब है। मगर, सौ सौ करोड़ कमाने वाली तीन फिल्‍मों की कमाई अकेली पीके ने कर डाली। सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि इस फिल्‍म को देखकर गदगद होने वाली युवा पीढ़ी बचपन में 'जय संतोषी मां' जैसी फिल्‍मों में होने वाले चमत्‍कार देखकर अचंभित होती रही है।

आमिर ख़ान को भोजपुरी बोलते हुए देखकर दर्शक वर्ग अधिक खुश हुआ। यदि आमिर ख़ान पीके के किरदार में हिन्‍दी बोलता तो शायद फिल्‍म उतना अच्‍छा प्रभाव न छोड़ती। आप आमिर ख़ान को नेपाली बोलते हुए कोक के विज्ञापन में देखा होगा। पंजाबी बोलते हुए टाटा स्‍काई के विज्ञापन में। इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि आमिर ख़ान की ढ़ाई घंटों की लंबी फिल्‍म से अधिक आकर्षित उनके विज्ञापन रहे हैं। इसके कारण भी आमिर ख़ान की लोकप्रियता बढ़ी है।

और फिल्‍म प्रचार की बात में भी आमिर ख़ान का कोई मुकाबला नहीं। बॉलीवुड में आमिर ख़ान इकलौते सफल स्‍वयं फिल्‍म प्रचारक हैं, जैसे राजनीति में नरेंद्र मोदी। संयोग देखो कि दोनों को विरोध के बावजूद गजब की सफलता मिलती है। जहां विरोध के बावजूद आमिर ख़ान ने तीन सौ करोड़ प्‍लस का बिजनस किया, वहीं, नरेंद्र मोदी ने लोक सभा चुनावों में बीजेपी को चमत्‍कारी बहुमत दिलाया।

आमिर ख़ान की फिल्‍म का विरोध करने वालों ने ओह माय गॉड का भी विरोध किया था। मगर, फिल्‍म केवल सौ करोड़ का बिजनस करने में सफल हुई। हम उस फिल्‍म की सफलता को कम नहीं आंक सकते, क्‍योंकि उसका बजट भी बहुत कम था और उसकी सिनेमा टिकट भी आमिर ख़ान की फिल्‍म पीके से तीसरे हिस्‍से की थी। इससे एक बात तो साबित होती है कि यदि फिल्‍म जनता की कसौटी पर खरी उतरती है तो उसको विरोध भी असफल नहीं बना सकता। पहले ओह माय गॉड का विरोध हुआ। उसके बाद पीके के रिलीज होने पर पिछले महीने और इस महीने हमने बहुत से शहरों में गुंडागर्दी का नंगा नाच देखा।

भारत में अब भी कुछ लोग पीके का विरोध कर रहे हैं। हालांकि, विरोध करने वालों में अधिकतर ने तो पीके फिल्‍म देखी तक नहीं है। सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि इसी बीच दक्षिण में ओह माय गॉड की रीमेक गोपाला गोपाला रिलीज होने जा रही है। इस दक्षिणी फिल्‍म ने पिछले दिनों ट्विटर पर जोरदार ट्रेंड पकड़ा था। इस फिल्‍म का संगीत रिलीज हुआ। ट्विटर पर लोगों ने फिल्‍म संगीत को लेकर सकारात्‍मक प्रतिक्रिया दी।

एक अन्‍य बात इस फिल्‍म में मुख्‍य भूमिका पवन कल्‍याण और अनाड़ी फिल्‍म में अभिनय कर चुके वैंकेटश निभा रहे हैं। पवन कल्‍याण ने पिछले लोक सभा चुनावों के दौरान जना पार्टी की स्‍थापना की, जो जल्‍द ही होने वाले स्‍थानीय निकाय के चुनावों में अपने उम्‍मीदवार उतारेगी। लोक सभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी से पवन कल्‍याण भी मिले थे। पवन कल्‍याण ने नरेंद्र मोदी को समर्थन दिया था। हालांकि, पवन कल्‍याण के भाई चिरंजीवी यूपीए सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

ओह माय गॉड और गोपाला गोपाला में रीमेक संबंध के अलावा एक अन्‍य संबंध भी है। जी हां, दोनों फिल्‍मों के मुख्‍य नायक भारतीय जनता पार्टी के महानायक नरेंद्र मोदी के करीबी हैं। परेश रावल तो अहमदाबाद से बीजेपी सांसद भी हैं।

अब देखना यह है कि आमिर ख़ान को निशाना बनाने वाले पवन कल्‍याण की फिल्‍म का विरोध करेंगे या नहीं ? क्‍योंकि यह फिल्‍म बीजेपी सांसद परेश रावल अभिनीत फिल्‍म ओह माय गॉड की रीमेक है। गोपाला गोपाला के पोस्‍टर पर पवन कल्‍याण और वैंकेटश महाभारत के भगवान श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के रथ वाले स्‍टाइल में खड़े नजर आ रहे हैं।

Saturday, January 10, 2015

'रामलीला' मैदान में 'मोदी लीला'

बाबा रामदेव का काले धन को लेकर अनशन हो या अन्ना हजारे का जन लोकपाल बिल लाने को लेकर शुरू किया गया आंदोलन। दोनों की याद आती है तो याद आता है दिल्ली का रामलीला मैदान। मैदान के नाम से जाहिर होता है कि यहां पर दीवाली से पूर्व रामलीला का आयोजन किया जाता है। यहां आयोजित होने वाली रामलीला में श्रीराम और रावण के बीच छद्म युद्ध होता है, क्योंकि रामलीला में सभी कलाकार एक दूसरे की जान पहचान के होते हैं। उनको पता होता है कि वो केवल कुछ दिनों के लिए किरदार अदा कर रहे हैं। अंत, उनको अपने असल जीवन में ढलना है।

मगर, यहां एक अन्य लीला भी होती है। वो राजनेताओं की होती है। इस लीला में रावण हमेशा विरोधी पार्टियां होती हैं। स्वयं को राम कौन नहीं कहना चाहेगा। राम जो ठहरे मर्यादा पुरुषोत्तम। यहां हर आदमी एक दूसरे से उत्तम होने की दौड़ में है। चुनावों के दिनों में नेता भी हाथी सी फीलिंग लेकर गलियों मोहल्‍लों से गुजरते हैं। आलोचना करने वालों को कुत्‍तों से अधिक समझते भी नहीं। इन दिनों हर कोई देश की विकास पैसेंजर को सुपर फास्ट बनाने के दावे करता है। बस! शर्त इतनी सी है कि इंजन उसके नाम का होना चाहिए। महिलाएं संदेही स्वभाव की होती है। भारतीय नेताओं को देखने के बाद यह तर्क झूठा सा मालूम पड़ता है क्योंकि जितना संदेह इनमें पाया जाता है, अन्य किसी प्राणी में नहीं। इनकी लीला ही निराली है।

लीला से याद आया। आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामलीला मैदान में थे। उनकी मेगा बजट रैली का आयोजन था। हालांकि, उनके होठों तले दबी हंसी बता रही थी कि उनकी स्‍थिति कुछ इस तरह की है, जैसे इंडिया टीम में खेलने वाला खिलाड़ी रणजी ट्राफी के लिए खेल रहा हो। रैली में दूर दराज से लोग आए होंगे। आख़िर देश के प्रधानमंत्री का लाइव भाषण कौन नहीं सुनना चाहेगा। मीडिया वाले भी अपने घरों से बड़े चौड़े होकर निकले होंगे। आख़िर एक महा रैली के साक्षी जो बनने वाले हैं। कुछ सालों बाद संस्‍मरण भी तो लिखने होंगे।

मगर, खोदा पहाड़ निकली चूहिया। जब मैंने प्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के बारे में पढ़ा तो सोच में पड़ गया। प्रिय प्रधानमंत्री ने कहा, ''जो देश का मूड है, वही दिल्ली का भी मूड है।'' मैं भी गदगद हो उठा। मेरे अंदर खलबली सी मच गई। मैंने अपने आप से कहा, ''हे प्रिय, यदि आप इतने अंतर्यामी हैं तो प्रभु अपनी लीला का परिचय देते हुए इस रैली में विरोधियों पर हमला करने की जगह दिल्ली वासियों को अग्रिम शुक्रिया कह देते।''

मेरे प्रिय प्रधानमंत्री आप ने नवगठित पार्टी पर हमला बोलते हुए कहा, "जिन लोगों की मास्टरी धरना देने की है उनको वह काम करने दीजिए। हमारी मास्टरी सरकार चलाने में है इसलिए हमें यह काम सौंपिए।" मास्‍टरी से याद आया कि आप संघ परिवार से तालुक रखते हैं। और मैं जानना चाहूंगा कि उसके पास किस तरह मास्टरी है। हे प्रिय, जरा उसका इतिहास उठाकर बताएं। जरा नए भारत को बताएं कि जब भारत को आजादी मिल रही थी तो पुणे में कौन से ध्वज को लहराकर सलामी दी जा रही थी। जब देश में एक महिला दबंग नेता इंदिरा गांधी राज था तो आपकी पार्टी किस तरह की गतिविधियों का आयोजन कर रही थी। जरा खुलकर बताएंगे। आपको महात्मा गांधी सबसे प्रिय हैं। क्षमा करें! सत्याग्रह करना तो उन्होंने ही पूरे भारत को सिखाया है। आपका भाषण उसी तरह का मालूम पड़ता है, जैसे सनी लियोने कह रही हो, यदि अंग प्रदर्शन करना है तो पॉर्न दुनिया में चली जाएं। बॉलीवुड को मेरी जरूरत है क्‍योंकि मुझे अभिनय करना आता है।

प्रिय प्रधानमंत्री आपने कहा,'जिन लोगों ने दिल्ली का एक साल बर्बाद किया है। उनको सजा मिलनी चाहिए।' मैं आप से सहमत हूं। शत प्रतिशत सहमत हूं। किंतु, मैं इतना पूछता हूं कि आप दिल से बोल रहे हैं, या किसी पटकथा विशेषज्ञ के लिखे शब्दों को केवल आवाज दे रहे हैं। क्षमा करें, क्योंकि मैं आपको अब जम्मू कश्मीर की तरफ देखने को कहूंगा। जहां भाजपा एवं पीडीपी के कारण जनता का मतदान व्यर्थ जाने वाला है। मुझे पता है कि आप कुछ नहीं कहेंगे। आप बोलने वाले प्रधानमंत्री हैं। क्षमा करें, आप में संवाद क्षमता नहीं है। संवाद दो लोगों के बीच की वार्ता है। एक तरफ से दिया गया व्यक्तव्य संवाद नहीं कहलाता।

आप ने कहा, 'दिल्ली को मैं जनरेटर मुक्त बना दूंगा।' अर्थात 24 घंटे पूर्ण रूप से बिजली उपलब्ध करवाई जाएगी। आप देश के प्रधानमंत्री हैं। यकीनन, आप दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री तो बनेंगे नहीं। यदि आपके अधीनस्‍थ सरकार ऐसा करेगी तो मेरी इतनी सी जिज्ञासा है कि आप एक बार हरियाणा सरकार से जरूर पूछें कि वो अपने वादे 24 घंटे बिजली के अनुसार अब कितने घंटे बिजली हरियाणा के लोगों को उपलब्ध करवा रही है।

आप ने कहा, मेरी सरकार को सात महीने हो गए। भ्रष्टाचार का एक भी मामला सामने नहीं आया। लेकिन, आप ने यह नहीं बताया कि पिछले सात महीनों में आप की सरकार ने कितने अध्यादेश जारी किए। सच कहूं तो अध्यादेश राज आपकी सरकार में ही आया है। यकीन नहीं होता कि उस सरकार ने 15 दिन में सात अध्यादेश पारित कर दिए, जो संप्रग पर अध्यादेश राज लाने का आरोप लगा रही थी। पिछले सात महीनों में देश के आपको अधिक समय विदेश यात्रा पर देखा है। इसके अलावा मीडिया में केवल धर्म परिवर्तन, घर वापसी, बेटी बचाओ बहू लाओ, गीता का राष्‍ट्रीयकरण, स्‍कूलों में संस्‍कृत, चार बच्‍चे पैदा करो, सूर्य नमस्‍कार इत्‍यादि ही आया है।

वैसे दिल्‍ली में 2022 तक झोपड़ियों की संख्‍या बढ़कर कितनी हो सकती है ? क्‍योंकि मोदी जी आपकी घोषणा के बाद अब बेघर लोगों का नारा होगा दिल्‍ली चलो झुग्‍गी बनाओ। पक्‍की तो मोदी जी कर देंगे। हां, पर अहमदाबाद वाले पूछ रहे हैं कि उनकी झुग्‍गियो में कब तक बिनानी सीमेंट लग जाएगा। सदियों के लिए।   
अंत में
एक मफलर वाले को हराने के लिए दिल्ली की भाजपा ईकाई को देश के प्रधानमंत्री सहित अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के जमावड़े की जरूरत पड़ रही है। बस इतना कहूंगा कि अरविंद केजरीवाल के पास गंवाने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए छोड़ी हुई दिल्ली की कुर्सी है। यदि आप हार गए तो...... चल छोड़ो जाने दो। आप नहीं समझेंगे। आप प्रधानमंत्री हैं।

Thursday, January 8, 2015

'भगवान' को अनुयायियों से ख़तरा ?

आधुनिक समय को देखते हुए तो कुछ ऐसा ही लग रहा है। आप माने या न माने, मगर, वास्‍तव में भगवान को (ईश्‍वर, गॉड, अल्‍लाह, राम, वाहेगुरू) अपने अनुनायियों से ख़तरा है। मगर, समस्‍या यह है कि भगवान स्‍वयं अमिताभ बच्‍चन की तरह सुरक्षा की मांग नहीं कर सकता। कुछ लोग तो अमिताभ बच्‍चन को भी भगवान घोषित कर चुके हैं। उनके चरण छूते हैं, उनसे आशीर्वाद मांगते हैं। उनका एक स्‍पर्श चाहते हैं।

मगर, उनका यह भगवान अपने अनुयायियों से तंग आकर अपने घर की सुरक्षा बढ़ा सकता है। जैसे, पिछले दिनों हुआ। अमिताभ बच्‍चन ने अनुयायियों (फैन) की आड़ में कुछ शरारती तत्‍वों के आने की बात कहकर घर की सुरक्षा बढ़ा ली। यह भगवान जीवित है। बोलता भी है। कुछेक सीमित लोगों का भगवान है। इसलिए सुरक्षा मांग भी समय रहते कर ली।

मगर, जो एक बड़े समूह का भगवान है, वो आकर कैसे कहे मुझे सुरक्षा चाहिए, क्‍योंकि उसके अनुयायियों के साथ साथ उनके परिसर में कुछ शरारती तत्‍व भी आ घुसे हैं। अब स्‍थिति कुछ तरह की बन चुकी है कि भगवान भी आने से डरने लगा है। स्‍वयं की घोषणा करने से भी कन्‍नी काट रहा है क्‍योंकि यह शरारती तत्‍व उसको नहीं छोड़ेंगे। हालांकि, यह तत्‍व उसकी रक्षा का दावा करते हैं। कहते हैं कि भले ही आदमी को खड़े रहने के लिए दो हाथ जमीन चाहिए और लेटने के लिए दो गज, मगर, हम आपका ध्‍वज पूरे विश्‍व में लहराएंगे।

उस सर्व शक्‍तिमान ने देखा है। सूली पर लटके जीसस को। 'अनल हक' का संदेश देने वाले मंसूर को। गरम तवी पर बैठे गुरू अर्जुन देव को। दिल्‍ली का चांदनी चौंक में श्री गुरू तेग बहादुर को। जहर लेते हुए सुकरात को। दुनिया की अनगिनत महान आत्‍माओं को, जिनको समाज ने सताया।

हिन्‍दु समुदाय विस्‍तार पाना चाहता है। ईसाई समुदाय विस्‍तार पाना चाहता है। इस्‍लाम विश्‍व पर अपनी हुकूमत चाहता है। सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि सरल हृदय के अनुयायी, जो इन धर्मों में हैं। उनको विस्‍तार से प्रेम नहीं, उनको अपने धर्म से, उनको अपने गुरू के दिखाए रास्‍ते से प्रेम है। जो उनको शांति की तरफ लेकर जाता है।

मगर, यहां भी स्‍थिति अमिताभ बच्‍चन के बंग्‍ले जैसी हो चुकी है। जहां पर कभी कभी सरल हृदय के लोगों के साथ कुछ शरारती तत्‍व घुस जाते हैं, जो अनुयायियों की पूरी आस्‍था पर पानी फेर देते हैं। द वाइट टाइगर में अरविंद अडीगा लिखते हैं, ''जब बोधगया से बुद्ध गुजरे होंगे, वो चले नहीं, दौड़े होंगे।'' इस पंक्‍ति के जरिये अरविंद अडीगा ने परिस्‍थिति पर एक व्‍यंग कसा था, लेकिन, आज की स्‍थितियां देखकर उनका व्‍यंग भी सत्‍य मालूम पड़ता है।

भारत विश्‍व में अध्‍यात्‍म के कारण जाना जाता है। और उम्‍मीद करता हूं कि यह इसके लिए ही जाना जाए। कभी किसी भी भारतीय को ट्विटर या फेसबुक पर यह लिखना न पड़े कि भारत की इज्‍जत करो, मैं भारतीय हूं, जैसे कि आज इस्‍लाम के लोगों को कुछ शरारती तत्‍वों के कारण ट्विटर पर अपना स्‍पष्टीकरण देना पड़ रहा है।

आज विश्‍व स्‍तर पर ट्विटर का ट्रेंड है #RespectForMuslims। इस ट्रेंड के साथ मुस्‍लिम समुदाय के लोग इस्‍लाम को समझने का निवेदन कर रहे हैं। वो बता रहे हैं कि उनका धर्म शांति फैलाने में विश्‍वास रखता है। वो किसी मासूम की हत्‍या करने में यकीन नहीं रखते और न इस्‍लाम इसकी आज्ञा देता है। मगर, इस्‍लाम के कट्टरपंथियों के कारण आज पूरा इस्‍लाम बदनाम हो रहा है और बदलाव के मुहाने पर खड़ा है।

मुंह में राम बगल में छुरी एक कहावत है। मगर, आज के दौरान में एक नई कहावत उभर रही है। हाथ में हथियार, मुंह में अल्‍लाह। दरअसल, यह लोग न तो सच्‍चे इस्‍लामी हैं और न ही सच्‍चे हिंदू हैं, न सिख हैं, न ईसाई हैं, यह केवल सत्‍ता के भूखे लोग हैं। उनको विस्‍तार हमेशा कम ही पड़ता है।

इनका किसी भी महात्‍मा से किसी भी प्रकार का नाता नहीं, यह तो केवल और केवल अपना स्‍वार्थ साधते हैं। और बदनाम होते हैं आमजन। चरमपंथ ने आज तक विश्‍व को कुछ नहीं दिया। चाहे वो म्‍यांमार में हो, श्रीलंका में हो, सीरिया में हो। पाकिस्‍तान में हो। या भारत में उभर रहा हो। चरमपंथ विनाश की तस्‍वीर छोड़ जाता है, जिसको दिखाकर स्‍वार्थी लोग फिर से चरम पंथ को हवा देते हैं।

चेतन भगत की 'रोमन हिन्दी', मेरी फुलस्टॉप वाली बिंदी

हिन्दी मूल के 'इंग्लिश' युवा उपन्यासकार चेतन भगत अपने लेख के जरिये पूछते हैं, ''रोमन हिन्दी के बारे में क्या ख्याल ?''। मेरे ख्याल से पहले मैं पूछना चाहूंगा, चेतन भगत से, जिस हिन्दी दैनिक समाचार पत्र में रोमन हिन्दी बाबत लेख के रूप में उनका विचार सामने आया है, क्या उन्होंने उस अख़बार को रोमन लिपि का इस्तेमाल करने की सलाह दे दी या नहीं ? लेख लिखने से पहले क्या उन्होंने समाचार पत्र की पाठक संख्या पर नजर मारी या नहीं ? चल पाठक संख्या की बात छोड़ो, कम से कम आप ने उस अख़बार की टैगलाइन तो पढ़ी होगी, जो मुझे कह रही है, ''आप पढ़ रहे हैं देश का नंबर 1 अख़बार''। जो मुझे साफ साफ बता रही है कि अख़बार हिन्दी देवनगरी में होने के बावजूद नंबर वन है। उसके नंबर वन होने से पता चलता है कि उसकी पाठक संख्या कहीं न कहीं अन्य हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों से अधिक है।

लेख में कहा गया है कि युवाओं पर हिन्दी को थोपा जा रहा है, तो मैं आपको पंजाब की तरफ नजर मारने के लिए कहता हूं। जहां आज आधा दर्जन से अधिक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं, जिसमें दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक सवेरा टाइम्स सवेरा इत्यादि शामिल हैं। इनकी पाठक संख्या आज लाखों में है, केवल पंजाब के अंदर। छोटे छोटे कसबों तक हिन्दी समाचार पत्रों की पहुंच बन चुकी है। आलम यह है कि क्षेत्रीय भाषा के समाचार पत्र पाठक संख्या में पिछड़ रहे हैं। इसके अलावा राजस्थान से प्रकाशित होने वाला दैनिक समाचार पत्र पत्रिका आज भारत के गैर हिन्दी इलाकों में प्रकाशित हो रहा है। इतना ही नहीं, दिन प्रति दिन उसकी पाठक संख्या बढ़ रही है। वहीं, रांची से प्रकाशित होने वाला प्रभात ख़बर बिहार, झारखंड, पश्चिमी बंगाल, असम तक अपनी पहचान बनाए हुए है।

आपने कहा, हिन्दी फिल्म जगत में आज भी पटकथा रोमन हिन्दी में लिखी जाती है। बिल्कुल लिखी जाती होगी, लेकिन किसी फिल्म को सफल बनाने के लिए हिन्दी मीडिया का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी मीडिया के बिना हिन्दी फिल्म जगत का अधिक बावजूद नहीं है। तुम्हारी नजर में इंग्लिश तरक्की के रास्ते खोलती है, हो सकता है क्योंकि तुमने अपने उपन्यास इंग्लिश में लिखे और धन कमाया। मगर, आप 65 फीसद आबादी तक तब पहुंचे, जब आपके इंग्लिश उपन्यास को हिन्दी पटकथा में रूपांतरण होकर सिनेमा खिड़की पर पहुंचे। रही बात तरक्की के द्वार खोलने की तो मैं आपको बता दूं, आज बाजार में बिकने वाले चीन के गैर ब्रांडेड स्मार्ट फोन भी हिन्दी भाषा के अनुकूल हैं।

विश्व की सबसे बड़ी एवं लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक भी हिन्दी संस्करण उपलब्ध करवाती है। उसको भी हिन्दी देवनगरी की ताकत का अंदाजा है। इसके अलावा, आज इंटरनेट पर वेब डोमेन नेम भी हिन्दी में उपलब्ध है। हिन्दी की वेबसाइटों की तो संख्या भी गिनती से बाहर होती जा रही है। दिलचस्प बात तो यह है कि रूस रेडियो, चीन, डॉयचे वेले, बीबीसी जैसे मीडिया समूह भी अपनी वेबसाइट को हिन्दी देवनगरी में चला रहे हैं। यदि उनको पाठक संख्या न मिलती तो शायद यह समाचार पोर्टल बंद हो जाते। इसके अलावा गूगल ने भी अपने हिन्दी ब्लॉगरों के लिए विज्ञापन के द्वार खोल दिए हैं। उसको भी समझ आ गया है, आपके लेख का अंतिम वाक्य, वक्त के साथ बदलना जरूरी है

अंत में
मेरा ख्याल यह है कि आपको हिन्दी देवनगरी में अपना अगला उपन्यास लिखना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि हिन्दी तेजी से अपने पैर पसार रही है। नि:संदेह इंग्लिश का बाजार बढ़ रहा है, लेकिन हिन्दी देवनगरी को कम समझने की भूल न करना।

दिलचस्प तथ्य
दैनिक जागरण ने बहुत पहले रोमन हिन्दी के पाठकों के लिए वेबसाइट बना दी है। हालांकि, यह कितनी सार्थक है या इस पर कितने पाठक पहुंचते हैं, यह तो जागरण प्रकाशन ही जानता है।

Wednesday, January 7, 2015

अभिव्‍यक्‍ति, चार्ली हेब्‍दो और इस्‍लाम

अभिव्‍यकित मीडिया का अधिकार है। अधिकार के साथ कुछ दायित्‍व भी होते हैं। यदि दायित्‍वों को दरकिनार अभिव्‍यक्‍ति के नाम पर अपनी खुन्‍नस निकालना शुरू कर देंगे, तो शायद अभिव्‍यक्‍ति अभिव्‍यक्‍ति न रहकर खुन्‍नस निकालने का एक जरिया बन जाएगी।

आज 07 जनवरी 2015 को पेरिस स्‍थित चार्ली हेब्‍दो के कार्यालय में जो कुछ हुआ, वो इसी का नतीजा है। हालांकि, ऐसा नहीं कि साप्‍ताहिक पत्रिका चार्ली हेब्‍दो ने पिछले दिनों आईएसआईएस के मुखिया अबु बक्र अल बगदादी का कार्टून छापा और आतंकवादियों ने हमला बोल दिया। दरअसल, फ्रांस के अंदर चार्ली हेब्‍दो और मुस्‍लिम समुदाय के बीच लम्‍बे समय से एक युद्ध चल रहा था।

इस्लाम को लेकर व्यंगात्मक लेखन एवं प्रकाशन के कारण चार्ली हेब्‍दो को कई बार विरोध का सामना करना पड़ा है। हालांकि, आलोचनाओं और विरोध के बावजूद मैगजीन ने अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला देकर कभी अपनी शैली से समझौता नहीं किया। उनके अड़ियल रवैया का एक उदाहरण उनकी एक इंटरव्‍यू से मिलता है, जो उन्‍होंने वर्ष 2012 में दी थी। इस इंटरव्‍यू में स्टीफन ने कहा था कि, "ना मेरे पास बीवी है, ना बच्चे हैं, और ना ही कार हैं घुटनों के बल जीने से अच्छा होगा की मैं जान दे दूं"।

दरअसल, चार्ली हेब्‍दो और मुस्‍लिम समुदाय के बीच उस समय तनाव पनपना शुरू हुआ था, जब पत्रिका ने वर्ष 2007 में मोहम्‍मद के आपत्‍तिजनक कार्टून छापे थे, जो पहले डेनमार्क के एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुए थे। इसके कारण फ्रांस के दो मुस्लिम संगठन क्रोधित हुए थे और उन्‍होंने पत्रिका पर केस भी ठोका था। इसके बाद वर्ष 2011 में पत्रिका ने 'शरिया एब्दो' नाम से अपना विशेष संस्करण निकालने का ऐलान करते हुए कहा था कि इस्लामिक पैगंबर मोहम्मद उनकी पत्रिका के गेस्‍ट एडिटर इन चीफ होंगे।

पत्रिका के पहले पन्‍ने पर पैगंबर मोहम्‍मद की तस्वीर को यह कहते हुए छापा था- अगर हंसते-हंसते आप मरते नहीं हैं, तो 100 कोड़े पड़ेंगे। अंतिम पृष्‍ठ पर मोहम्मद को लाल रंग की नाक में यह कहते हुए दिखाया गया था- हां, इस्लाम और हास्य साथ-साथ चल सकते हैं। 2 नवंबर 2011 को पत्रिका के कार्यालय पर बम से हमला हुआ और वेबसाइट हैक किया गया था।

सितंबर 2012 में मैगजीन ने पैगंबर पर व्यंग्यात्मक कार्टूनों की पूरी श्रृंखला प्रकाशित की, जिनमें से कुछेक कार्टून तो बेहद अश्लील थे। पत्रिका ने कार्टूनों की श्रृंखला उस समय प्रकाशित की जब इस्लाम पर आधारित एक फिल्म के विरोध में अमेरिका के दूतावासों पर हमले हुए थे।

हैरानी की बात यह है कि आज चार्ली हेब्‍दो पर उस समय हमला हुआ। जब फ्रांस एक बुरी स्‍थिति में फंसा हुआ है। फ्रांस में एक उपन्‍यास को लेकर विवाद चल रहा है। इस उपन्‍यास में दावा किया गया है कि 2022 तक फ्रांस एक इस्‍लामिक देश बन जाएगा। इसका राष्‍ट्रपति एक मुस्‍लिम होगा। यहां की महिलाएं बुर्के में होंगी। उनको नौकरी छोड़नी पड़ेगी। किसी को भी चार शादियां करने की इजाजत होगी। यह उपन्‍यास प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक मीशेल वेलबेक की कल्‍पना की उपज है। 'सबमिशन' नामक इस उपन्‍यास को कुछ लोग कड़वी सच्‍चाई के रूप में देख रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि आज का धर्मनिरपेक्ष देश फ्रांस एक दुविधा की परिस्‍थिति के बीच से गुजर रहा है। वहां के लोग डरे हुए हैं। उनके मनों में भय बन रहा है कि उनका देश धर्म निरपेक्षता को खो देगा।

आज फ्रांस में जो हुआ, वो इस्‍लाम को चोट पहुंचाने वाला है। इससे इस्‍लाम का भला नहीं बल्‍कि इस्‍लाम बदनाम होगा। आज किसी भी देश में हमला होता है तो बदनाम इस्‍लाम होता है। चरमपंथी हमला करके निकल लेते हैं, मगर, उसका भुगतान देश के आम इस्‍लाम अनुयायियों को भुगतना पड़ता है। भारत के बॉलीवुड सितारे शाहरुख खान को अमेरिकी एयरपोर्ट पर केवल नाम के कारण रोक लिया जाता है। उसकी तलाशी ली जाती है।

सिडनी कैफे में हुए हमले के बाद वहां की सरकार ने सख्‍त शब्‍दों में कहा था, इस्‍लाम चरमपंथियों को देश में घुसने नहीं देंगे। उसके बाद पेशावर में दर्दनाक हादसा देखने को मिला। सीरिया और इराक की स्‍थितियां किसी से छुपी नहीं हैं। ऐसे में इस्‍लाम के अनुयायियों को भी अब अपने चरमपंथियों से लड़ने की स्‍वयं जिम्‍मेदारी लेनी होगी, ताकि दिन प्रति दिन ख़राब हो रही इस्‍लाम की छवि को बचाया जाए।

हंगू के 17 वर्षीय पाकिस्‍तानी स्‍कूली बच्‍चे एत्‍जाज हसन की तरह, जिसने अपनी जान गंवाकर अपने जैसे दो हजार बच्‍चों को जिन्‍दगी दी। अगर वो चाहता तो कायर की तरह भाग निकलता, और जेहाद के नाम पर दो हजार बच्‍चों की बलि चढ़ जाती। हालांकि, साल के अंत में पेशावर में आतंकवादी अपने मंसूबों को सफल कर गए। सरकार मुंह ताकती रह गई क्‍योंकि इस स्‍कूल के बाहर कोई एत्‍जाज हसन न था, जो पेशावर आर्मी के बच्‍चों को बचा लेता।

दूसरी तरफ, मीडिया को भी अपनी अभिव्‍यक्‍ति के साथ साथ अपने दायित्‍वों को भी याद रखना होगा। सस्‍ती लोकप्रियता के लिए महान आत्‍माओं का मजाक उड़ाने और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने से बचना चाहिए। समाज के भीतर पाखंड करने वालों पर तंज कसना चाहिए। लोगों को गुमराह करने वालों पर तंज कसना चाहिए। जो स्‍वयं को दुनिया में स्‍थापित करके चले गए, उन पर उंगलियां उठाना। उनका मजाक बनाना किस तरह की अभिव्‍यक्‍ति है।

साक्षी महाराज! महाराज! महाराज! की विकास नीति

साक्षी महाराज! महाराज! महाराज! उनकी विकास नीति के बारे में सुनकर कुछ ऐसा ही मुंह से निकलेगा। उनकी विकास नीति पर बात करनी चाहिए। केंद्र सरकार को गंभीरता पूर्ण सोचना चाहिए। बकायदा अमल में लाने के लिए विशेष संसदीय सत्र बुलाना चाहिए। यदि बात न बन पा रही हो तो अध्यादेश लाना चाहिए।

साक्षी महाराज अद्भुत हैं। उनके विचार अद्भुत कैसे न होंगे। हिंदू धर्म ख़तरे में है। जब धर्म ख़तरे में हो, तो धर्म को बचाने के लिए लोगों को आगे आना चाहिए। साक्षी महाराज कुछ भी तो गलत नहीं कह रहे, वो तो कह रहे हैं कि हिंदू महिला को चार चार बच्चे पैदा करने चाहिए। आखिर, महिलाएं बच्चे पैदा करने के लिए तो इस दुनिया में आई हैं। उनका अन्य कोई उद्देश्य थोड़ा है।

साक्षी महाराज को क्या फर्क पड़ता है ? यदि इससे देश में भूखमरी बढ़ जाए। क्या फर्क पड़ता है ? यदि किसी के पास सिर ढकने के लिए छत न हो। बस धर्म की नींव कहीं कमजोर न हो जाए। धर्म को मजबूत करने के लिए गरीबी के दिनों से गुजारने पड़े तो क्या बड़ी बात है ? आप इतना सा कार्य नहीं कर सकते।

शर्म तो मुझे इस बात पर आती है कि इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी मूर्ख लोगों को देश चलाने की आज्ञा देता है। सबसे अधिक शर्म उन लोगों पर आती है, जो साधू संन्यासी की गरिमा को चोट पहुंचा रहे हैं। हिंदू धर्म को ख़तरा कम होती आबादी से नहीं, बल्कि ऐसे साधू संन्यासियों से है, जिनको संन्यास का सही अर्थ भी पता नहीं। जिनके हाथ में गीता तो है, लेकिन आत्मसात की बात आने पर गीता का एक श्लोक भी नहीं है।

हिंन्दू धर्म को ख़तरा हिंदू धर्म के ठेकेदारों से है या उन लोगों से जिनको समाज में जब इज्जत नहीं मिलती को साधू बनने निकल पड़ते हैं। जब साधू संन्यासी के रूप में हिट होते ही अपने पुराने रंग रूप में उतर आते हैं। अपने अंदर का तनाव समाज में फैलाने निकल पड़ते हैं। हमारे गांव में एक कहावत है साधू नूं की नाल स्वादां। साधूवत को पाना इतना आसान नहीं है। साधूवत वो स्थिति है, जहां सब अपना हो जाता है। कुछ भी गैर नहीं बचता। जब सब अपना हो जाता है तो ख़तरे का सवाल ही उत्पन्न नहीं होता है। ख़तरा तो वहां है, जहां मेरा बलवान है। घर गृहस्थी छोड़कर संन्यास को निकलने बाबा जब आम धारा में रहने वाले लोगों को नसीहत सलाह देते हैं तो हैरानी होती है।

महाराज ने बड़े आराम से कहा, चार बच्चे पैदा करो। एक को सीमा पर भेज दें। एक को साधू संन्यासी के साथ भेज दें। सांसद बन चुके साक्षी महाराज को शायद गृहस्थ जीवन की दुख तकलीफों की जानकारी नहीं है। उनको नहीं पता कि आज बीस हजार महीना कमाने वाला भी अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाता है। साक्षी महाराज के इस फार्मूले ने जमींदारों को मजदूर बनाकर रख दिया। बीस बीस एकड़ जमीन के मालिकों के बच्चे आज दो दो एकड़ जमीन के मालिक रह गए। साक्षी महाराज ने शायद बनारस के घाटों, महानगर की सड़कों पर एवं मंदिरों के बाहर भीख मांगने वालों की बढ़ती संख्या को नहीं देखा।

भारत आबादी के मामले में चीन से केवल कुछ लाख संख्या पीछे है। विश्व में आबादी के मामले में दूसरा स्थान भारत के पास है। आज विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहां पर भारतीय मूल का निवासी न हो। 1980 में एक सांसद के सवाल पर सरकार ने कहा था, दुनिया के 180 देशों में भारतीय रहते हैं। आज उस बात को करीबन तीन दशक हो चले हैं। आप सहज की अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत की आबादी विश्व के किस छोर तक पहुंच गई होगी। लेबर ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर तीसरा स्नातक पास युवा बेरोजगार है। साक्षी महाराज, आप आप सरकार में हैं, पहले इस समस्या का समाधान लाएं। उसके बाद देश की जनता आपकी विकास नीति पर ध्यान दे सकती है। साथ ही, एक अन्य बात, आज की पढ़ी लिखी महिला करियर एवं हेल्थ के प्रति संवेदनशील हो चुकी है। ऐसे में कितने घरों में घरेलू हिंसा होगी, आपको इस बात का अंदाजा भी नहीं होगा।

हां। आपकी विकास नीति बुरी नहीं होगी। यदि आप महिलाओं से बात करें। उनको बीस से पच्चीस लाख रुपया दें, उने सुरक्षित भविष्य के लिए। स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाएं। उस तरह की परिस्थितियां मुहैया करवाएं, जहां वो प्रसव पीड़ा से गुजरते हुए थोड़ा सा सुखद महसूस करें।

Saturday, January 3, 2015

समस्या अपनी अपनी है

सूर्य उदय होने के साथ सेठ रामलाल भी कुत्ते के साथ सड़क पर निकल लेते हैं, अपने बढ़ते हुए पेट को कम करने के लिए, और रामू भी निकल पड़ता है, अपने खाली पेट को भरने के लिए। अगर देखा जाए तो दोनों की समस्या पेट से जुड़ी हुई है, हालांकि, समस्या अपनी अपनी है। सनी लियोने भारत आई, उसको एक नया बाजार मिला, उसको आधे कपड़े पहने के पैसे मिलने लगे। मगर, भारतीय अभिनेत्रियां आधे कपड़े उतारने के लिए पैसे मांगती हैं। राखी सावंत कहती हैं कि उनको सनी लियोने ने अंग प्रदर्शन के लिए मजबूर कर दिया। मामला महिला अंग प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है, हालांकि, समस्या अपनी अपनी है।

एक ख़बर के अनुसार बिहार में जनसंख्या कंट्रोल करने की एक अनूठी कोशिश के अंतर्गत एक पान दुकानदार अपने ग्राहकों को पान के साथ कंडोम मुफ्त में दे रहा है। उसका कहना है कि इसके जरिए वह लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए जागरूक करने की कोशिश कर रहा है। कटिहार के नंदलाल की पहल बुरी नहीं है, मगर एक बात अन्य भी कह दूं, आजकल कंडोम का इस्तेमाल विवाहित जातक कम, और आविवाहित अधिक करते हैं, क्योंकि कंडोम असुरक्षित संबंधों में स्वयं की सुरक्षा बनाए रखने के लिए इस्तेमाल भी होते हैं। जहां बिहार का एक नागरिक बढ़ती जनसंख्या के कारण परेशान है, तो वहीं जापान अपनी कम होती जनसंख्या को लेकर परेशान है। दोनों में चिंता का मूल कारण जनसंख्या है, हालांकि, समस्या अपनी अपनी है।

सरकार के अनुसार साल 2014 में 2013 की तुलना में 9000 कम बच्चों ने जन्म लिया। साल 2014 में नवजात शिशुओं की संख्या घट कर 10 लाख हो गई। इसके मुख्य कारण बच्चों के जन्म और पालन-पोषण का बढ़ता खर्च,  कामकाजी महिलाओं की बढ़ती तादाद, अधिक उम्र में शादी, अविवाहितों की बढ़ती आबादी,  घर के माहौल और समाजिक रीति-रिवाजों में बदलाव हैं।

वैसे तो जापान के प्राचीन इतिहास के संबंध में कोई पक्की जानकारी नहीं है। किंतु, जापानी लोककथाओं के अनुसार विश्व के निर्माता ने सूर्य देवी एवं चन्द्र देवी को भी रचा। उनका पोता क्यूशू द्वीप पर आया और उनके संतान होंशू द्वीप पर फैल गए। यह कथा सत्य है या असत्य है, इसका ठोस सबूत नहीं है। हालांकि, जापान के बारे में एक कड़वा सत्य है कि 1910 से 1945 के बीच जापानी सेना ने अपने कब्जे वाले देशों में लाखों महिलाओं से बलात्कार किया। इसके लिए बकायदा बलात्कार केंद्र बनाए गए थे। डर यह है कि अपने अस्तित्व को बचाने की दौड़ यदि जापान में पुन:शुरू हो गई तो कहीं उपरोक्त दौर फिर न लौट आए। नववर्ष में दुआ तो यह है कि इस दौर की जापान वापसी न हो।

मगर, अब भारत अपनी यातायात समस्या को हल करने के लिए जापान के साथ हाथ मिलाने जा रहा है। भारत के लिए बढ़ती जनसंख्या के साथ साथ यातायात भी एक बड़ी समस्या है। जनसंख्या ही तो बढ़ती यातायात समस्या का मूल कारण है। मगर, जापान की घटती जनसंख्या के मुख्य कारण भारत को आने वाले कल का संकेत दे सकते हैं। यदि भारत जापान से सीखना चाहते तो सीख सकता है। हालांकि, सलाह मेरी, लेकिन सोच अपनी अपनी है।

अंत में
विपक्ष और विरोधियों के पास आलोचना का हक होता है। जनविरोधी मामलों में सरकार की आलोचना करने का हक होता है। मगर, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को अपने पीछे चलाने के लिए लालायित हैं। इसलिए उन्होंने वर्ष 2015 को आलोचना करो को समर्पित कर दिया। अब विपक्ष तथा सरकार विरोधी लोग मोदी के ​पीछे चले तो भी मरे, और न चले तो भी मरे। मोदी ने काम ही ऐसा कर दिया। दरअसल, सांप भी मार दिया और लठ भी बचा ली। ठोको ताली।

Friday, January 2, 2015

तो लोग आचमन से भी डरेंगे

बीबीसी हिन्‍दी पर एक रिपोर्ट क्या दुनिया से धर्म ग़ायब हो जाएगा? पढ़ रहा था। मैंने इस रिपोर्ट को पूर्ण रूप से पढ़ा और अंत उस नतीजे पर पहुंचा, जिसके बारे में शीर्षक पढ़कर सोच रहा था। धर्म था, धर्म है और धर्म रहेगा। धर्म का अस्‍तित्‍व मिटना असंभव है, हालांकि, मैं धर्म को मानव स्‍वभाव से जोड़ता हूं, आधुनिक धर्म की परिभाषा से नहीं, जैसे कि हिंदु, मुस्‍लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्‍यादि।

जब गंगोत्री से धारा निकलती है तो वो स्‍वयं को समुद्र तक लेकर जाने का रास्‍ता खोज लेती है, और गंगा विराट रूप धारण करती हुई, अंत समुद्र में विलीन हो जाती है। भूल जाती है, अपनी विराटता को, और गिर जाती है विराट समुद्र में, और समुद्र हो जाती है। समुद्र से बादल बन खेतों खलियानों को भिगोती हुई, गंगोत्री में जाकर फिर से नयी धारा बनती है। यह निरंतर चक्‍कर चलता रहता है।

हालांकि, इस बात में दो राय नहीं कि समय के साथ साथ गंगा मैली होती जा रही है। शहरों के गंदे नाले इसकी पवित्रता को उस तरह चोट पहुंच रहे हैं, जिस तरह धर्मों में कुछ अधर्मी घुसकर अधर्म फैलाए जा रहे हैं। अगर, गंगा का पानी गंदे नालों के कारण अशुद्ध हो जाए, यदि वो पीने लायक न रहे, या पीने से रोग पनपने लगें तो हो सकता है, लोग आचमन करने से भी डरने लगें। मगर, गंगा के प्रति उनकी श्रद्धा कम नहीं होगी, उनकी आस्‍था किसी अन्‍य सुराख से बाहर की तरफ बहने लगेगी। हो सकता है कि 'धारा' शब्‍द विपरीत रूप धारण करते हुए 'राधा' बन जाए। जिस तरह भगवान श्रीकृष्‍ण को रुकमणि से अलग किया जा सकता है, मगर 'राधा' से नहीं, उसी तरह सच्‍ची आस्‍था एवं श्रद्धा को भक्‍त से अलग करना असंभव है, क्‍योंकि यह मानव का स्‍वभाव है, जो सदियों पुराना है।

हालांकि, बीबीसी हिन्‍दी की उपरोक्‍त रिपोर्ट में गैलप इंटरनेशनल के हवाले से कहा गया है, ''2005 से 2011 के दौरान धर्म को मानने वाले लोगों की तादाद 77 प्रतिशत से घटकर 68 प्रतिशत रह गई है, जबकि ख़ुद को नास्तिक बताने वालों को संख्या में तीन प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।'' जानकारी गैलप इंटरनेशनल के सर्वे में 57 देशों के 50,000 से अधिक लोग शामिल किए गए थे।

रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि जापान, कनाडा, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड्स, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, जर्मनी, फ्रांस, उरुग्वे ऐसे देश हैं, जहां 100 साल पहले तक धर्म महत्वपूर्ण हुआ करता था, लेकिन अब इन देशों में ईश्वर को मानने वालों की दर सबसे कम है।

इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इन देशों में शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था काफी मजबूत है। असमानता कम है और लोग अपेक्षाकृत अधिक धनवान हैं। इस बात को समझने की जरूरत है। लोगों के पास धन की कमी नहीं, जो उनकी भोग विलास की जरूरतों को आसानी से पूरा कर रहा है। जब आप अन्‍य चीजों में व्‍यस्‍त होते हैं तो आपको भगवान की छोड़ो स्‍वयं की स्‍थिति पता नहीं होती। आप अपने पैरों की उंगलियों को तब तक महसूस नहीं करते, जब तक आपके पैरों की उंगलियां चोटिल न हों। इसका मतलब यह नहीं है कि जब तक चोट न लगे, तब तक आप के पैरों की उंगलियां हैं नहीं। पैरों की उंगलियां हैं, मगर, उनको महसूस करने का समय नहीं है।

इस रिपोर्ट में एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण बात कही गर्इ है, जो भी समझनी महत्‍वपूर्ण है। लोगों के भीतर से डर गायब हो रहा है, इसलिए लोग ईश्‍वर से दूर हो रहे हैं। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि जो लोग केवल डर के कारण ईश्‍वर को मान रहे हैं, उनके अभय होने के साथ उनका ईश्‍वर के प्रति प्रेम चला जाएगा। मैंने शुरूआत में ही कहा है कि लोग आचमन करने से भी डरेंगे। उनका उस ईश्‍वर, परमात्‍मा, प्रभु, अल्‍लाह, वाहेगुरू से विश्‍वास उठेगा, जो कुछ लोगों ने स्‍वयं की दुकानदारियां चलाने के लिए खड़ा कर दिया है। उससे नहीं, जो सदैव से मौजूद है, जो सर्वव्‍यापी है।

रिपोर्ट अंत में एक महत्‍वपूर्ण बात कहती है, ''आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का संकट गहराएगा और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आएगी, पीड़ितों की संख्या बढ़ेगी और धार्मिक भावना में इज़ाफ़ा हो सकता है।'' कितना दिलचस्‍प अंत है कि रिपोर्ट स्‍वयं कह रही है धर्म, आस्‍था लौटेगी।

पहले लोग सूर्य, अग्‍नि, वायु, पृथ्‍वी इत्‍यादि को पूजते थे, क्‍योंकि उनकी आस्‍था उसमें थी। वो उनके प्रति अपना आदर भाव प्रकट करते थे, क्‍योंकि पूर्ण सृष्‍टि उससे है। बुद्धि के विकास ने तर्क को जन्‍म दिया और हमने विकास के नाम पर उस सृष्‍टि को इतना कष्‍ट पहुंचाया है कि अब हम को उसके बैक पंच के लिए तैयार तो रहना होगा। डेढ़ वर्ष पहले की उत्‍तराखंड त्रासदी उसका एक अनूठा परिणाम थी।

अंत में...
यदि जमीन में बीज नहीं हैं, तो बारिश आए या न आए, वो जमीन वैसी ही रहेगी, जैसी है, यदि जमीन में बीज हैं, तो बारिश आने के बाद जमीन हरियाली छोड़ेगी। हर तरफ हरा हरा नजर आएगा। हम बीज के विकास की संभावनाओं को नकार नहीं सकते। हां, इतना जरूर है कि उसके पनपने के लिए सही मौसम का इंतजार करना होगा।

Thursday, January 1, 2015

एबीपी न्‍यूज, पोल और धोखा

कुछ दिन पहले देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक विदेशी पत्रिका टाइम के ऑनलाइन रीडर्स सर्वे पोल में जीतकर अंत हार गए। पत्रिका ने नरेंद्र मोदी को जीतने बावजूद अंतिम दौड़ से बाहर कर दिया। हालांकि, इस विदेशी पत्रिका प्रबंधन का कहना था, अंतिम निर्णय जूरी का होता है। सवाल उठा, जो उठना भी चाहिए। यदि अंतिम फैसला जूरी का होता है तो ऑनलाइन रीडर्स सर्वे पोल करवाने का औचित्‍य क्‍या ? टाइम पत्रिका के पास जवाब नहीं होगा, केवल तर्क होंगे।

पत्रिका के नक्‍शेकदम पर चलते हुए आज देश के हिन्‍दी समाचार चैनल ABP न्यूज ने पाठकों की राय को दरकिनार कर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साल 2014 का व्यक्ति विशेष चुन लिया। दरअसल, ABP न्यूज ने अपनी वेबसाइट ABP live पर साल 2014 के व्यक्ति विशेष का पोल करवाया। इस पोल में अरविंद केजरीवाल को 52.63 फीसदी मत मिले, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 34.12 फीसदी। इस पोल में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुरी तरह पछाड़ दिया।

मगर, ABP न्यूज ने, ''दर्शकों की राय में अरविंद केजरीवाल व्यक्ति विशेष हैं, लेकिन देश को पिछले 30 साल में पहली बार 2014 में पूर्ण बहुमत की सरकार नरेंद्र मोदी ने दी है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ABP न्यूज के 2014 के व्यक्ति विशेष हैं।'' का तर्क देते हुए अरविंद केजरीवाल को साल 2014 का व्यक्ति विशेष नहीं चुना।

ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम कहावत है कि जिसकी खाएं बाजरी, उसकी भरें हाजिरी। नरेंद्र मोदी की सरकार है, अब उसकी जय जयकार नहीं होगी तो किसकी होगी। लोग कहते हैं कि अकबर के साथ बीरबल भी निकल गए। मगर, आज जब इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया को देखता हूं तो लगता है कि अकबर अकेले ही निकले होंगे। बीरबल तो आज भी जिंदा हैं।

बारह साल तक गुजरात के पूर्व मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने वाला मीडिया आजकल अमूल कंपनी से बटर उधार लेकर खूब लगा रहा है। हालांकि, नरेंद्र मोदी मीडिया को भाव नहीं दे रहे हैं। टाइम पत्रिका के बाद ABP न्यूज ने भी लोगों के भरोसे को तोड़ा है। ABP न्यूज के सर्वे पोल में नरेंद्र मोदी के दीवानों का न आने का कारण टाइम पत्रिका का धोखा हो सकता है। जब आपको जनता की राय के साथ चलना नहीं है तो क्‍यों इस तरह के पोल सर्वे करवा जाते हैं।

एबीपी न्‍यूज की एक अन्‍य समस्‍या हो सकती है कि कहीं अरविंद केजरीवाल को विजेता घोषित कर देने से नरेंद्र मोदी के चाहने वाले उस पर पक्षपाती होने का आरोप न लगा दें। यदि आप बाजारवाद से इतने डरे हुए हैं, तो आपको अपनी दुकान के बाहर लिखकर लगाना चाहिए, बाजारवाद के दौर में निष्‍पक्षता न मांगें। आप से अच्‍छे तो दुकानदार हैं, जो दुकान के बाहर लिखकर लगाते हैं कि फैशन के दौर में गारंटी न मांगें। 


युवा पीढ़ी - पश्चिम की ओर भी, मूल जड़ की ओर भी

सुबह सुबह का समय था। रोजमर्रा की तरह काम पर निकला था। सरखेज गांधीनगर हाइवे पर सोला ब्रिज के समीप सड़क के किनारे सरेआम एक लड़की अपने प्रेमी के साथ हॉलीवुड स्टाइल में किस कर रही थी। लड़की इसलिए, क्योंकि लड़की के हाथ लड़के के सिर को अपनी ओर खींचे हुए थे, जो मोटरसाइकिल का सहारा लिए खड़ा था। मैं एक पंछी झलक के साथ आगे निकल गया। इसलिए, यह समझ नहीं पाया कि यह लव जिहाद था या बहू लाओ अभियान का दृश्य। जो भी हो, मगर यह इस बात का प्रतीक है कि भारतीय समाज में एक नया समाज जन्म ले रहा था, जो कह रहा है, 'पहाड़ में जाए जनता, शुरू हो जाओ जहां मूड बनता! या आप कह सकते हैं कि आज पहली तारीख है, कुछ मीठा हो जाए।

पहली तारीख से याद आया। नूतन वर्ष की बधाई हो। बधाई देते हुए डर भी लग रहा है। कहीं आप भी प्रतिक्रिया में निम्न पंक्तियां न कह दें। ''ईसाई और अंग्रेजी नूतन वर्ष को धूमधाम से मनाने वाले हिंदुओं पर यह कहावत पूरी तरह फिट बैठती है, 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना''। वॉट्सएप आजकल इस तरह की प्रक्रिया आ रही है। इसलिए कह रहा हूं, भारत में तेजी से दो समाज उभर रहे हैं, एक जो पश्चिमी रंग में डूबने के लिए तैयार है, दूसरा जो विश्व की महाशक्ति बनना चाहता है, मगर अपने मूल रंग में रहना चाहता है।

एक युवा पीढ़ी खुलेपन में जीने के लिए कदम आगे बढ़ा रही है। एक युवा पीढ़ी नए प्रभाव में पीछे की तरफ लौटने के लिए प्रयासरत है। इसको देखते हुए एक नए संघर्ष के पनपने का डर भी मन में जन्म ले रहा है। युवा पीढ़ी का एक पक्ष हिन्दुत्व को उभरता हुआ देखना चाहता है। वहीं, दूसरा पक्ष अपने जीवन को पश्चिमी तरीकों से जीने के लिए अग्रसर हो चुका है।

वर्ष 2013 के दौरान दिल्ली ने युवा पीढ़ी के नेतृत्व में देश के अंदर राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी थी। वर्ष2014 में हुए लोक सभा चुनावों के दौरान असर साफ देखने को मिला। नतीजन, देश को बहुमत हासिल सरकार मिली। मोदी सरकार ने जनता को देश को विकास के पथ पर दौड़ाने का भरोसा दिलाया। युवा पीढ़ी झूम उठी। मगर, अचानक आरएसएस के सहयोगी हिंदू संगठन सक्रिय हो गए। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए माहौल तैयार किया जाने लगा, जो शायद उस युवा पीढ़ी के सपनों पर पानी फेर देगा, जो पश्चिमी देशों की तरह जीवन जीने का सपना देख रही है।

जो लड़की आज सरेआम सड़क किनारे अपने प्रेमी के साथ किस कर रही थी। उसको 14 फरवरी के दिन होने वाले हिंदू संगठनों के हमले याद नहीं होंगे। अगले महीने 14 फरवरी का दिन आने वाला है। अब पूरे देश में सरकार भी हिंदूत्व प्रेमियों की है। इस स्थिति में देश के पार्कों में दीवानों के मेले लगेंगे या हिंदू संगठनों का रौब कायम होगा। अंजाम देखने के लिए इंतजार तो करना होगा। हालांकि, आज नूतन वर्ष की बधाई के सामने आया, दोस्त का जवाब आने वाले कल की ख़बर दे रहा है।

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