ठंड के कारण हाथ पैर कांप रहे थे। घर के सारे खिड़कियां दरवाजे बंद थे, ताकि ठंड अंदर घुस न पाए। मैं टेलीविजन पर चैनलों वाली गिटरपिटर सुनने में मशगूल था। अचानक, घर के मुख्य द्वार से किसी चीज के टकराने की आवाज आई। मैंने टेलीविजन बंद करते हुए तपाक से दरवाजा खोला। मैं देखता हूं कि एक गधा हांप रहा है। मैंने सड़कों पर गधों को अलसियों की तरह धीमे धीमे चलते हुए देखा, मगर यह पहला गधा था, जो मैथारन में दौड़ रहे किसी व्यक्ति की तरह दौड़ते हुए मेरे घर के मुख्य द्वार से आ टकराया।
मैंने उसके साथ हमदर्दी जताई और घर के भीतर ले लाया। मेरे पैरों से जमीन निकल गई, जब मैंने उसको बोलते हुए सुना। गधा काफी समझदार मालूम पड़ रहा था। मैंने उससे पूछा कि आखिर तुम इतना हांप क्यों रहे हो ?, आखिर माजरा क्या है?
गधा बोला, छोड़ो जाने दो। शुक्रिया, जो आपने घर में पनाह दी। मैंने कहा, कुछ तो बताओ। गधे ने मेरा निवेदन स्वीकार करते हुए कहा -
'दिल्ली चलो' का नारा प्रत्येक छोटे बड़े व्यक्ति की जुबान पर था और एक तरह से मैं भी इस नारे से प्रभावित होकर दिल्ली जा रहा था। किंतु मुझे यह मालूम न था कि रास्ते में क्या विपत्ति आएगी ? रास्ते में एक स्थान पर मैंने देखा, एक मुसलमान बढ़ई शरअई दाढ़ी रखे हुए एक छोटी सी गठरी बगल में दबाए, एक छोटे से गांव से भागकर सड़क पर आ रहा था। मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे अपनी पीठ पर सवार कर लिया और तेज कदमों से चलने लगा ताकि उस गांव के फसादी उसका पीछा न कर सकें। मैं बहुत आगे निकल गया और मन ही मन बहु प्रसन्न हुआ कि चलो, मेरे कारण एक निर्दोष की जान बच गई। इतने में क्या देखता हूं कि बहुत से फसादी रास्ता रोके खड़े हैं।
एक फसादी ने हमारी ओर देखकर कहा, देखा इस बदमाश मुसलमान को, न जाने किस बेचारे हिंदू का गधा चुराए लिए जा रहा है। मुसलमान बढ़ई ने अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, मगर किसी ने एक न सुनी। उसे फसदियों ने मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक फसादी ने बांध लिया और अपने घर की ओर ले चला।
जब हम आगे बढ़े तो रास्ते में मुसलमानों के कुछ गांव पड़ते थे। यहां पर कुछेक दूसरी ओर के फसादी आगे बढ़े। एक ने कहा, देखा, यह बेचारा गधा किसी मुसलमान का मालूम होता है, जिसे वह हिंदू फसादी घेरे लिए जा रहा है। उस बेचारे ने भी अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, लेकिन किसी ने एक न सुनी और उसका सफाया हो गया। और मैं एक मौलवी साहब के हिस्से में आया। जो मुझे उसी रस्सी से पकड़कर अपनी मस्जिद की ओर ले चले। रास्ते में मैंने मौलवी साहब के आगे बहुत अनुनय विनय की।
मैं - हजरत, मुझे छोड़ दीजिए।
मौलवी - यह कैसे हो सकता है। तुम माले गनीमत हो।
मैं - हुजूर। माले गनीमत नहीं हूं। गनीमत यह है कि मैं एक गधा हूं, वरना अब तक मारा गया होता।
मौलवी - अच्छा, यह बताओ, तुम हिंदू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं- हुजूर न मैं हिंदू, न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मजहब नहीं होता।
मौलवी - मेरे सवाल का ठीक ठीक जवाब दे।
मैं - ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या हिंदू तो गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता।
मौलबी साहेब ने मुझे मस्जिद के बाहर एक खूंटे से बांध दिया और स्वयं भीतर चले गए। मैंने मौका गनीमत जाना और रस्सी तोड़कर वहां से निकल भागा। ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मीलों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उपरोक्त व्यंग विश्व ख्याति प्राप्त कथाकार कृश्न चन्दर के हास्य व्यंग से भरपूर उपन्यास एक गधे की आत्मकथा से लिया गया है, जो हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है।
इस उपन्यास को केवल इसका शीर्षक देखकर मैंने काफी महीने पहले खरीदा था। मगर, कभी पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाया। आज शाम को ऑफिस से घर आने पर अपनी अलमारी से इस उपन्यास को निकाला और पढ़ने लगा।
पढ़ते पढ़ते, मैं उपन्यास के इस खूबसूरत व्यंग पर पहुंचा, जो आज के समय में काफी प्रासंगिक मालूम पड़ता है। हिन्द पॉकेट बुक्स की उत्कृष्ट भेंट देशभर के सभी बुक स्टालों पर उपलब्ध है। हास्य व्यंग से भरपूर उपन्यास में कृश्न चन्दर ने समाज का एक अनूठा विश्लेषण किया है।
मैंने उसके साथ हमदर्दी जताई और घर के भीतर ले लाया। मेरे पैरों से जमीन निकल गई, जब मैंने उसको बोलते हुए सुना। गधा काफी समझदार मालूम पड़ रहा था। मैंने उससे पूछा कि आखिर तुम इतना हांप क्यों रहे हो ?, आखिर माजरा क्या है?
गधा बोला, छोड़ो जाने दो। शुक्रिया, जो आपने घर में पनाह दी। मैंने कहा, कुछ तो बताओ। गधे ने मेरा निवेदन स्वीकार करते हुए कहा -
'दिल्ली चलो' का नारा प्रत्येक छोटे बड़े व्यक्ति की जुबान पर था और एक तरह से मैं भी इस नारे से प्रभावित होकर दिल्ली जा रहा था। किंतु मुझे यह मालूम न था कि रास्ते में क्या विपत्ति आएगी ? रास्ते में एक स्थान पर मैंने देखा, एक मुसलमान बढ़ई शरअई दाढ़ी रखे हुए एक छोटी सी गठरी बगल में दबाए, एक छोटे से गांव से भागकर सड़क पर आ रहा था। मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे अपनी पीठ पर सवार कर लिया और तेज कदमों से चलने लगा ताकि उस गांव के फसादी उसका पीछा न कर सकें। मैं बहुत आगे निकल गया और मन ही मन बहु प्रसन्न हुआ कि चलो, मेरे कारण एक निर्दोष की जान बच गई। इतने में क्या देखता हूं कि बहुत से फसादी रास्ता रोके खड़े हैं।
एक फसादी ने हमारी ओर देखकर कहा, देखा इस बदमाश मुसलमान को, न जाने किस बेचारे हिंदू का गधा चुराए लिए जा रहा है। मुसलमान बढ़ई ने अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, मगर किसी ने एक न सुनी। उसे फसदियों ने मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक फसादी ने बांध लिया और अपने घर की ओर ले चला।
जब हम आगे बढ़े तो रास्ते में मुसलमानों के कुछ गांव पड़ते थे। यहां पर कुछेक दूसरी ओर के फसादी आगे बढ़े। एक ने कहा, देखा, यह बेचारा गधा किसी मुसलमान का मालूम होता है, जिसे वह हिंदू फसादी घेरे लिए जा रहा है। उस बेचारे ने भी अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, लेकिन किसी ने एक न सुनी और उसका सफाया हो गया। और मैं एक मौलवी साहब के हिस्से में आया। जो मुझे उसी रस्सी से पकड़कर अपनी मस्जिद की ओर ले चले। रास्ते में मैंने मौलवी साहब के आगे बहुत अनुनय विनय की।
मैं - हजरत, मुझे छोड़ दीजिए।
मौलवी - यह कैसे हो सकता है। तुम माले गनीमत हो।
मैं - हुजूर। माले गनीमत नहीं हूं। गनीमत यह है कि मैं एक गधा हूं, वरना अब तक मारा गया होता।
मौलवी - अच्छा, यह बताओ, तुम हिंदू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं- हुजूर न मैं हिंदू, न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मजहब नहीं होता।
मौलवी - मेरे सवाल का ठीक ठीक जवाब दे।
मैं - ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या हिंदू तो गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता।
मौलबी साहेब ने मुझे मस्जिद के बाहर एक खूंटे से बांध दिया और स्वयं भीतर चले गए। मैंने मौका गनीमत जाना और रस्सी तोड़कर वहां से निकल भागा। ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मीलों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उपरोक्त व्यंग विश्व ख्याति प्राप्त कथाकार कृश्न चन्दर के हास्य व्यंग से भरपूर उपन्यास एक गधे की आत्मकथा से लिया गया है, जो हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है।
इस उपन्यास को केवल इसका शीर्षक देखकर मैंने काफी महीने पहले खरीदा था। मगर, कभी पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाया। आज शाम को ऑफिस से घर आने पर अपनी अलमारी से इस उपन्यास को निकाला और पढ़ने लगा।
पढ़ते पढ़ते, मैं उपन्यास के इस खूबसूरत व्यंग पर पहुंचा, जो आज के समय में काफी प्रासंगिक मालूम पड़ता है। हिन्द पॉकेट बुक्स की उत्कृष्ट भेंट देशभर के सभी बुक स्टालों पर उपलब्ध है। हास्य व्यंग से भरपूर उपन्यास में कृश्न चन्दर ने समाज का एक अनूठा विश्लेषण किया है।
No comments:
Post a Comment
अपने बहुमूल्य विचार रखने के लिए आपका धन्यवाद