Monday, December 29, 2014

'जय किसान, जय जवान' कहीं औपचारिकता बनकर न रह जाए

'जय जवान, जय किसान' का नारा समय के साथ 'गौण' होता नजर आ रहा है। जवान और किसान को केवल समाचार पत्र में उस समय जगह मिलती है, जब वो तनावग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है। जवानों और किसानों के आत्महत्या करने की ख़बरें प्रकाशित होती रहती हैं। शायद, अब प्रशासन और सरकार को भी इस तरह की ख़बरों की अनदेखी करने की लत लग गई है।

पिछले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के प्रखर नेता नरेंद्र मोदी ने जवानों और किसानों को अपने केंद्र में रखा एवं संप्रग सरकार के नीचे से कुर्सी को निकाल फेंका। और महाराष्ट्र को भी कांग्रेस मुक्त बना दिया। एक उम्मीद जागी थी कि कुछ बेहतर होगा।

पूरे देश को याद होगा, 10 अक्टूबर का दिन, जब अमरावती जिले में एक रैली को संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'एक किसान आपसे क्या मांगता है? क्या वह कार और बंगले की मांग करता है? एक किसान केवल पानी मांगता है। यदि आप उसे पानी दे देते हैं तो वह मिट्टी में सोना पैदा करने की क्षमता रखता है।'

देश के प्रधानमंत्री का यह बयान आकस्मिक उस समय दिमाग में दौड़ने लगता है, जब विदर्भ जन आंदोलन समिति के प्रमुख किशोर तिवारी 28 दिसंबर 2014 को एक प्रेस बयान जारी करते हुए कहते हैं कि पिछले 72 घंटों में 12 किसानों ने आत्महत्या कर ली। यह मामला उस समय सामने आ रहे हैं, जब केंद्र एवं महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है। महाराष्ट्र के अलावा अन्य राज्यों में भी स्थिति अधिक अच्छी नहीं है, लेकिन मामले में उतनी तेजी से उभरकर सामने नहीं आते हैं। इक्का दुक्का मामलों को लेकर सरकार या प्रशासन गंभीर नहीं होता है। हालांकि, किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामलों को गंभीरता से लेते हुए प्रशासन को जमीनी स्तर पर कार्य करने चाहिए।

सरकार अगर हवाई बयानबाजी से निकलकर जमीनी स्तर पर कार्य करने के लिए तैयार है तो उसको गांव के किसानों के कर्ज का वर्णन एकत्र करना चाहिए। गांव गांव में किसानों के लिए जीवन के प्रति उत्साह जगाने वाले समारोह आयोजित करने चाहिए। किसानों की आत्महत्या के पीछे के कारण तनाव है, जो शाहूकार की जबरी कर्ज वसूली की प्रक्रिया के भय से हो सकता है। गांवों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। शहरों में बेरोजगारी पहले से मुंह उठाए खड़ी है। गांव में शहर सी व्यवस्थाएं न होने के कारण युवा शहरी वर्गों को पछाड़ने में असफल हैं।

ऐसे में ग्रामीण युवा अपनी पुश्तैनी धंधा कृषि कर अपनी आजीविका का जुगाड़ करने लगते हैं। मगर, जनसंख्या के सामने जमीन कम पड़ रही है, जिसके कारण कर्ज में वृद्घि होती है। छोटे किसानों के पास संसाधन नहीं हैं, जिसके कारण वो अच्छे तरीके से कृषि करने में असफल हो रहे हैं। आर्थिक तौर पर संपन्न न होने के कारण पौष्टिक आहार का आभाव उनकी शारीरिक क्षमताओं को कम करता है एवं एक समय के बाद सरकारी अस्पतालों के खर्च उनकी कमर तोड़ देते हैं। सरकार को किसानों के मामले में आर्थिक दृष्टि से वर्गीकरण करने की जरूरत है। इस मामले में पंचायत तथा समाज सेवी संस्थाओं का सहयोग लेना चाहिए। अन्यथा 'जय किसान, जय जवान' का नारा केवल एक औपचारिकता बन कर रह जाएगा।

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