बात कहां से शुरू की जाए। सिडनी के उस कैफे से, जिसको एक सनकी व्यक्ति ने 16 घंटों तक बंधक बनाए रखा। या पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल से, जहां आतंकवादियों ने हैवानियत की नयी तस्वीर पेश की। या अतीत के झरोखे में उतरते हुए मुम्बई के आतंकवादी हमले से। अंतः बात कहीं से भी शुरू हो, बात आतंकवाद के संदर्भ में ही होगी।
आतंकवाद भारत या पाकिस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। यदि ऐसा न होता तो जी 20 सम्मेलन में जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद का मुद्दा उठाया तो इस मामले को इतनी गंभीरता से न लिया जाता। मगर, सवाल दूसरा भी है कि केवल बयानों से हम आतंकवाद को खत्म कर देंगे, जो रात दिन तेजी गति से जहर की तरह विश्व भर में फैलता जा रहा है। इसके लिए देशों के हुकमरान ही सबसे बड़े कारक हैं। चाहे वो किसी भी देश के क्यों न हो। पेशावर या मुम्बई हमलों में आधुनिक तकनीक के हथियारों का इस्तेमाल किया गया, क्या आतंकवादी संगठनों के पास बिना किसी सरकारी तंत्र की मदद के इनका आना संभव है। विशेषकर, उस समय जब विश्व भर के विकसित एवं विकासशील देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का समर्थन बड़े विश्व मंचों से खड़े होकर कर रहे हों।
जब मंगलवार को पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर आतंकवादियों ने हमला बोला। और स्कूल परिसर को लहू से लथपथ कर दिया। तब दुनिया भर के लोगों ने धर्म जात पात से ऊपर उठते हुए पाकिस्तानी पीड़ित परिवारों के साथ संवेदना प्रकट की। मगर, उसी समय पाकिस्तान में राजनीतिक दल अपनी चाल चल रहे थे, हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ साधने में व्यस्त था। जनता कराह रही थी। चीख रही थी। राजनीतिक अपने प्रोग्राम रद्द कर आम लोगों की तरह संवेदना प्रकट कर रहे थे। इस मामले से सबसे बड़ी बात तो देखने को मिली, वो यह थी कि किसी भी राजनीतिक दल ने तालिबान पर सीधा निशाना नहीं लगाया। नये पाकिस्तान की उम्मीद देने वाले पीटीआई नेता एवं पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने भी खुलकर तालिबान के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोला, जबकि तालिबानी समूह ने हमले की सीधे तौर पर जिम्मेदारी ले ली थी।
पाकिस्तानी नेताओं ने आतंकवाद की दो परिभाषाएं बना रखी हैं। एक अच्छा आतंकवाद और एक बुरा आतंकवाद। हालांकि, आतंकवाद आतंकवद ही होता है। आतंकवाद में अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता। पूरा विश्व उस पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई लड़ने की उम्मीद लगाए हुए है, जो दोहरी चाल चलने के लिए जाना जाता है। एक तरफ पाकिस्तान तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता दिलाने में हाथ पैर मार रहा है और दूसरी तरफ उसी को खत्म करने के लिए अभियान चलाने के दावे करता है। अगर, वर्ष 2015 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत आ जाती है तो उस स्थिति में पाकिस्तान हुकमरान अफगानिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लेंगे। इस उम्मीद करना बिल्कुल बेईमानी होगा। पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का दावा करता है, क्योंकि उसको इस दावे के बदले में विदेशों से सहायता राशि के नाम पर बड़े पैमाने पर धन मिलता है। इस धन से हुकमरानों का जीवन चलता है। और सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारना किसी के लिए सरल कार्य नहीं है।
अभी पेशावर में हुए हमले के दौरान मारे गए बच्चों के अभिभावकों की आंखों से आंसू थमे भी नहीं थे कि मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के मुख्य आरोपियों में से एक लश्कर-ए-तोएबा के कमांडर जकीउर रहमान लखवी को आतंकवादरोधी अदालत ने पांच लाख रुपये के मुचलके पर जमानत दे दी। हालांकि, विरोध के बाद वहां की सरकार ने इस मामले में अपना विरोध दर्ज करवाने की बात कही है। मगर, विरोध करने का मतलब ही क्या है, यदि पाकिस्तान दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादियों में शुमार जमात उद दावा चीफ हाफिज सईद को संरक्षण देना बंद नहीं कर सकता है।
इस मामले में भारतीय सरकारें भी कम नहीं हैं। जो हर आतंकवादी हमले के बाद कड़े जवाब देने की बात करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जीरो कार्रवाई होती है। पेशावर में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत के बड़े शहरों में अलर्ट जारी कर दिए गए। मगर यह तो एक परंपरागत कार्रवाई है। पूर्ववर्ती सरकारें भी तो इस तरह के कदम उठाती रही हैं। नया कुछ भी तो नहीं है। सवाल तो यह उठता है कि आखिर एक दिन के अलर्ट से स्थितियों में कितना परिवर्तन आएगा। क्या कुछ दिनों का अलर्ट पूरे देश को सुरक्षा का विश्वास दिला सकता है। विशेषकर, उस स्थिति में जब देश की संसद से लेकर मुंबई के ताज होटल तक भी आतंकवादियों की पहुंच से अछूते नहीं रह पाए। एकाध सूचना के बाद पूरे देश में अलर्ट घोषित कर सरकार सोचती है कि उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है।
दरअसल, रेलवे स्टेशन, बस स्टेंड व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगे कैमरे ख़राब होने के समाचारों पर स्थानीय प्रशासन एक कदम तक नहीं उठता है। हां, सरकार के अलर्ट के बाद दायित्व के नाम पर आम नागरिकों के बैग जरूर टटोल लिए जाते हैं। भारत को केवल कश्मीर के रास्ते से ही ख़तरा नहीं, बल्कि भारत को समुद्र से, बंग्लादेश से, चीन से एवं म्यांमार से लगती सीमाओं से भी ख़तरा है।
एक अन्य ख़तरा हिंदूवादी संगठन पैदा कर रहे हैं, जो पूरे देश को ही नहीं, विश्व के अन्य देशों को भी भगवा पहनाने पर तूले हुए हैं। इन संगठनों को लेकर सरकार की स्थिति पाकिस्तानी की सरकार जैसी है, जो न तो इन संगठनों का खुलकर विरोध कर सकती है और नाहीं इनको पनपे में मदद करने के हक में है। यदि सरकार ने समय रहते इन संगठनों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो पाकिस्तान की तरह देश में भी चरमपंथी संगठनों के उदय को कोई नहीं रोक सकता। अंजाम तो हम पेशावर में देख चुके हैं।
आतंकवाद भारत या पाकिस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। यदि ऐसा न होता तो जी 20 सम्मेलन में जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद का मुद्दा उठाया तो इस मामले को इतनी गंभीरता से न लिया जाता। मगर, सवाल दूसरा भी है कि केवल बयानों से हम आतंकवाद को खत्म कर देंगे, जो रात दिन तेजी गति से जहर की तरह विश्व भर में फैलता जा रहा है। इसके लिए देशों के हुकमरान ही सबसे बड़े कारक हैं। चाहे वो किसी भी देश के क्यों न हो। पेशावर या मुम्बई हमलों में आधुनिक तकनीक के हथियारों का इस्तेमाल किया गया, क्या आतंकवादी संगठनों के पास बिना किसी सरकारी तंत्र की मदद के इनका आना संभव है। विशेषकर, उस समय जब विश्व भर के विकसित एवं विकासशील देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का समर्थन बड़े विश्व मंचों से खड़े होकर कर रहे हों।
जब मंगलवार को पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर आतंकवादियों ने हमला बोला। और स्कूल परिसर को लहू से लथपथ कर दिया। तब दुनिया भर के लोगों ने धर्म जात पात से ऊपर उठते हुए पाकिस्तानी पीड़ित परिवारों के साथ संवेदना प्रकट की। मगर, उसी समय पाकिस्तान में राजनीतिक दल अपनी चाल चल रहे थे, हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ साधने में व्यस्त था। जनता कराह रही थी। चीख रही थी। राजनीतिक अपने प्रोग्राम रद्द कर आम लोगों की तरह संवेदना प्रकट कर रहे थे। इस मामले से सबसे बड़ी बात तो देखने को मिली, वो यह थी कि किसी भी राजनीतिक दल ने तालिबान पर सीधा निशाना नहीं लगाया। नये पाकिस्तान की उम्मीद देने वाले पीटीआई नेता एवं पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने भी खुलकर तालिबान के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोला, जबकि तालिबानी समूह ने हमले की सीधे तौर पर जिम्मेदारी ले ली थी।
पाकिस्तानी नेताओं ने आतंकवाद की दो परिभाषाएं बना रखी हैं। एक अच्छा आतंकवाद और एक बुरा आतंकवाद। हालांकि, आतंकवाद आतंकवद ही होता है। आतंकवाद में अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता। पूरा विश्व उस पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई लड़ने की उम्मीद लगाए हुए है, जो दोहरी चाल चलने के लिए जाना जाता है। एक तरफ पाकिस्तान तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता दिलाने में हाथ पैर मार रहा है और दूसरी तरफ उसी को खत्म करने के लिए अभियान चलाने के दावे करता है। अगर, वर्ष 2015 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत आ जाती है तो उस स्थिति में पाकिस्तान हुकमरान अफगानिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लेंगे। इस उम्मीद करना बिल्कुल बेईमानी होगा। पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का दावा करता है, क्योंकि उसको इस दावे के बदले में विदेशों से सहायता राशि के नाम पर बड़े पैमाने पर धन मिलता है। इस धन से हुकमरानों का जीवन चलता है। और सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारना किसी के लिए सरल कार्य नहीं है।
अभी पेशावर में हुए हमले के दौरान मारे गए बच्चों के अभिभावकों की आंखों से आंसू थमे भी नहीं थे कि मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के मुख्य आरोपियों में से एक लश्कर-ए-तोएबा के कमांडर जकीउर रहमान लखवी को आतंकवादरोधी अदालत ने पांच लाख रुपये के मुचलके पर जमानत दे दी। हालांकि, विरोध के बाद वहां की सरकार ने इस मामले में अपना विरोध दर्ज करवाने की बात कही है। मगर, विरोध करने का मतलब ही क्या है, यदि पाकिस्तान दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादियों में शुमार जमात उद दावा चीफ हाफिज सईद को संरक्षण देना बंद नहीं कर सकता है।
इस मामले में भारतीय सरकारें भी कम नहीं हैं। जो हर आतंकवादी हमले के बाद कड़े जवाब देने की बात करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जीरो कार्रवाई होती है। पेशावर में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत के बड़े शहरों में अलर्ट जारी कर दिए गए। मगर यह तो एक परंपरागत कार्रवाई है। पूर्ववर्ती सरकारें भी तो इस तरह के कदम उठाती रही हैं। नया कुछ भी तो नहीं है। सवाल तो यह उठता है कि आखिर एक दिन के अलर्ट से स्थितियों में कितना परिवर्तन आएगा। क्या कुछ दिनों का अलर्ट पूरे देश को सुरक्षा का विश्वास दिला सकता है। विशेषकर, उस स्थिति में जब देश की संसद से लेकर मुंबई के ताज होटल तक भी आतंकवादियों की पहुंच से अछूते नहीं रह पाए। एकाध सूचना के बाद पूरे देश में अलर्ट घोषित कर सरकार सोचती है कि उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है।
दरअसल, रेलवे स्टेशन, बस स्टेंड व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगे कैमरे ख़राब होने के समाचारों पर स्थानीय प्रशासन एक कदम तक नहीं उठता है। हां, सरकार के अलर्ट के बाद दायित्व के नाम पर आम नागरिकों के बैग जरूर टटोल लिए जाते हैं। भारत को केवल कश्मीर के रास्ते से ही ख़तरा नहीं, बल्कि भारत को समुद्र से, बंग्लादेश से, चीन से एवं म्यांमार से लगती सीमाओं से भी ख़तरा है।
एक अन्य ख़तरा हिंदूवादी संगठन पैदा कर रहे हैं, जो पूरे देश को ही नहीं, विश्व के अन्य देशों को भी भगवा पहनाने पर तूले हुए हैं। इन संगठनों को लेकर सरकार की स्थिति पाकिस्तानी की सरकार जैसी है, जो न तो इन संगठनों का खुलकर विरोध कर सकती है और नाहीं इनको पनपे में मदद करने के हक में है। यदि सरकार ने समय रहते इन संगठनों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो पाकिस्तान की तरह देश में भी चरमपंथी संगठनों के उदय को कोई नहीं रोक सकता। अंजाम तो हम पेशावर में देख चुके हैं।
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