Wednesday, December 31, 2014

कोहरा भरी रातों में नूतन वर्ष का आगमन

छत पर कोहरे का पहरा। कड़ाके की ठंड में शरीर का ठिठुरना। आधी रात को रजाई से निकलने के लिए मन को तैयार करना। एकाएक याद आ गया। सोसायटी के बाहर डीजे लगा हुआ है। सोसासटी के रहवासियों को जमवाड़ा है। कोहरे की गैरहाजिरी में भी ठंड अंगद की तरह पैर जमाए हुए है, लेकिन ठंड को ठेंगा दिखाते हुए हिंदी और गुजराती गीतों की धुनों पर रहवासियों के पैर थिरक रहे हैं।

मेरी सोसायटी के रहवासी ही नहीं, आज पूरा विश्‍व नूतन वर्ष की पूर्व मध्‍य रात्रि का जश्‍न मनाने में मस्‍त है। देश विदेश की झलकियां दिखाने के लिए न्‍यूज चैनलों के कैमरे लग चुके हैं। अब जब पूरे विश्‍व को कैद करने के लिए हर न्‍यूज चैनल आमादा है। तभी मैं महसूस कर रहा हूं कि आज वो पहले से उत्‍सुकता नहीं है। वो दिन भी कुछ और थे, जब गर्म रजाई से निकलकर खुले आंगन में आकर ठंड से कहते थे, आज की रात दूरदर्शन पर नववर्ष का विश्‍व दर्शन करेंगे, जो भी हो जाए।

गांव में गिने चुने टेलीविजन हुआ करते थे। चैनलों की अधिक भीड़ न थी, दूरदर्शन अकेला शेर था। दिन में तय हो जाता था, आज रात टेलीविजन को नियमित जगह से हटाकर किसी अन्‍य जगह सेट कर लेना, जहां परिवार वालों को दिक्‍कत न हो। रात को छत से कोहरे से लड़ते हुए किसी विशेष घर में प्रवेश करने एवं टेलीविजन को ठंड में ठिठुरते हुए देखने का अपना ही मजा था।

ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी रात को टेलीविजन को बड़े चाव से देखा जाता है। हालांकि, घर घर टेलीविजन आने के कारण वो पहले सी उत्‍सुकता कहीं नजर नहीं आती। शहरों में बड़े बड़े प्रोग्रामों का आयोजन, महंगे महंगे टिकट, प्रेमी प्रेमिका का सिनेमा हाल जाना, लोगों का नाचना गाना, शराब शबाब और कबाब का मिलन अब आम सी बात हो चली है।

अंत में
जापान में एक परंपरा है कि आधी रात को बौद्ध मंदिर में 108 घंटी बजाई जाती है। यह घंटी 108 मानसिक स्‍थिति से जुड़े तत्‍वों का प्रतिनिधित्‍व करती है, जो व्‍यक्‍ति को अनैतिक कार्रवाई के लिए उकसाते हैं, जैसे कि क्रोध इत्‍यादि। मानता है कि इस तरह करने से नकारात्‍मकता उनके जीवन से बाहर जाती है।

कुछ यूं हमने 2014 साल बिता दिया

पुराने साल की तरह अब धोनी भी टेस्ट क्रिकेट से निकल लिए। नीतिश कुमार तो सीएम की कुर्सी से कब के निकल लिए, मगर अरविंद केजरीवाल की तरह फिर कतार में हैं। यूटर्न में नरेंद्र मोदी सरकार ने अरविंद केजरीवाल सरकार को पछाड़ दिया। मनमोहन सरकार को सैनिक सिर काटने के मामले में मोदी सरकार ने क्लीनचिट देकर मनमोहन का रिपोर्ट कार्ड सुधार दिया। ऋतिक रोशन वैवाहिक जीवन में चूक गए, लेकिन आधार कार्ड ने अपना आधार बना लिया। विद्या एवं रानी ने भी शिल्पा की तरह सैकेंड हैंड हसबंड के साथ अपना घर बसा लिया।

महाराष्ट्र, हरियाणा में कब्जा करने के बाद झारखंड में बीजेपी ने पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बना दिया, हालांकि, जम्मू कश्मीर में जनादेश का बिखराव ने पेच फंसा दिया। वर्ष 2013 में अरुण जेटली ने जिन दिनों कांग्रेस के अध्यादेश की पुरजोर आलोचना की थी। अपनी सरकार आते ही सात दिन में छह अध्यादेश लाकर साबित कर दिया कि परिवर्तन समय का नियम है। संसद बेचारी अब हो हल्ले के लिए रह गई। प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद नरेंद्र मोदी ने विदेश मंत्री का कार्यभार खूब संभाला। हालांकि, वर्ष के अंत में रेलवे के निजीकरण को सिरे नकार दिया। बात बात पर ट्विट करने वाले प्रधानमंत्री की धर्म परिवर्तन पर चुप्पी ने मनमोहन सिंह को पछाड़ दिया।

राहुल गांधी को अभी भी उम्मीद है कि कांग्रेस जल्द देश के केंद्र में होगी, भले ही कीनिया टीम की तरह हर मैच हार दिया। हिंदूओं की घर वापसी के साथ साथ जनता परिवार की घर वापसी हो गई। जहां, भारत ने मंगलयान पर पहुंचकर विश्व को हैरत में डाल दिया। वहीं, अटल बिहारी वाजपेयी भारत रत्न ले गए। बड़ी अजीब बात है कि शाहरुख ख़ान दीवाली पर ही हैप्पी न्यू ईयर कह गए।

साल के अंत में पीके आए आमिर ख़ान ने सोए हुए लोगों को जगा दिया। कुछ सिनेमा घरों में तोड़ फोड़ ने खर्च बढ़ा दिया। मोदी सरकार ने भी छह महीनों वालों के बदले 60 साल वालों से मांगो हिसाब कहकर टरका दिया। नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक नहीं होंगे, राजनाथ सिंह ने कहकर जनता का दिल दुखा दिया। इस साल ने फिर से नेताजी का भारत रत्न अटका दिया। टाइम पत्रिका से चूके भारत देश के सेलिब्रिटी प्रधानमंत्री को सनी लियोने की खूबसूरती ने हरा दिया। हमने बस यूं ही पूरा साल बिता दिया।

Monday, December 29, 2014

'जय किसान, जय जवान' कहीं औपचारिकता बनकर न रह जाए

'जय जवान, जय किसान' का नारा समय के साथ 'गौण' होता नजर आ रहा है। जवान और किसान को केवल समाचार पत्र में उस समय जगह मिलती है, जब वो तनावग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है। जवानों और किसानों के आत्महत्या करने की ख़बरें प्रकाशित होती रहती हैं। शायद, अब प्रशासन और सरकार को भी इस तरह की ख़बरों की अनदेखी करने की लत लग गई है।

पिछले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के प्रखर नेता नरेंद्र मोदी ने जवानों और किसानों को अपने केंद्र में रखा एवं संप्रग सरकार के नीचे से कुर्सी को निकाल फेंका। और महाराष्ट्र को भी कांग्रेस मुक्त बना दिया। एक उम्मीद जागी थी कि कुछ बेहतर होगा।

पूरे देश को याद होगा, 10 अक्टूबर का दिन, जब अमरावती जिले में एक रैली को संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'एक किसान आपसे क्या मांगता है? क्या वह कार और बंगले की मांग करता है? एक किसान केवल पानी मांगता है। यदि आप उसे पानी दे देते हैं तो वह मिट्टी में सोना पैदा करने की क्षमता रखता है।'

देश के प्रधानमंत्री का यह बयान आकस्मिक उस समय दिमाग में दौड़ने लगता है, जब विदर्भ जन आंदोलन समिति के प्रमुख किशोर तिवारी 28 दिसंबर 2014 को एक प्रेस बयान जारी करते हुए कहते हैं कि पिछले 72 घंटों में 12 किसानों ने आत्महत्या कर ली। यह मामला उस समय सामने आ रहे हैं, जब केंद्र एवं महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है। महाराष्ट्र के अलावा अन्य राज्यों में भी स्थिति अधिक अच्छी नहीं है, लेकिन मामले में उतनी तेजी से उभरकर सामने नहीं आते हैं। इक्का दुक्का मामलों को लेकर सरकार या प्रशासन गंभीर नहीं होता है। हालांकि, किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामलों को गंभीरता से लेते हुए प्रशासन को जमीनी स्तर पर कार्य करने चाहिए।

सरकार अगर हवाई बयानबाजी से निकलकर जमीनी स्तर पर कार्य करने के लिए तैयार है तो उसको गांव के किसानों के कर्ज का वर्णन एकत्र करना चाहिए। गांव गांव में किसानों के लिए जीवन के प्रति उत्साह जगाने वाले समारोह आयोजित करने चाहिए। किसानों की आत्महत्या के पीछे के कारण तनाव है, जो शाहूकार की जबरी कर्ज वसूली की प्रक्रिया के भय से हो सकता है। गांवों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। शहरों में बेरोजगारी पहले से मुंह उठाए खड़ी है। गांव में शहर सी व्यवस्थाएं न होने के कारण युवा शहरी वर्गों को पछाड़ने में असफल हैं।

ऐसे में ग्रामीण युवा अपनी पुश्तैनी धंधा कृषि कर अपनी आजीविका का जुगाड़ करने लगते हैं। मगर, जनसंख्या के सामने जमीन कम पड़ रही है, जिसके कारण कर्ज में वृद्घि होती है। छोटे किसानों के पास संसाधन नहीं हैं, जिसके कारण वो अच्छे तरीके से कृषि करने में असफल हो रहे हैं। आर्थिक तौर पर संपन्न न होने के कारण पौष्टिक आहार का आभाव उनकी शारीरिक क्षमताओं को कम करता है एवं एक समय के बाद सरकारी अस्पतालों के खर्च उनकी कमर तोड़ देते हैं। सरकार को किसानों के मामले में आर्थिक दृष्टि से वर्गीकरण करने की जरूरत है। इस मामले में पंचायत तथा समाज सेवी संस्थाओं का सहयोग लेना चाहिए। अन्यथा 'जय किसान, जय जवान' का नारा केवल एक औपचारिकता बन कर रह जाएगा।

Sunday, December 28, 2014

राजकुमार हिरानी का 'पीके'

राजकुमार हिरानी का 'पीके'। मुन्‍नाभाई से अलग नहीं है। मुन्‍नाभाई जेल में थे, इसलिए राजकुमार हिरानी ने अपनी बात कहने के लिए 'पीके' को चुन लिया। उनका 'पीके' एक दूर दुनिया से आता है, जिसके जहां पर अभी धर्म की महामारी नहीं फैली। अनजान जगह पर आने के बाद पीके लोगों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करते हुए उनकी भाषा को सीखने का प्रयास करता है।

मगर, हमेशा अनजान लोगों की सीधी बातें उलटी पड़ जाती हैं। पीके को लगता है कि इस दुनिया में भगवान एक ही है और वो उसकी समस्‍या का समाधान कर सकता है। जैसे ठोकर खाने के बाद अकल आ जाती है, वैसे ही पीके को भी अकल आती है।

धीरे धीरे, उसको समझ पड़ने लगता है कि कौन से धर्म के देवता की मूर्ति पर शराब चढ़ सकती है, और कौन से भगवान को नारियल से खुश किया जाता है। इस फिल्‍म को देखते वक्‍त आपको अपनी सोच एक पागल व्‍यक्‍ति पर केंद्रित करनी होगी, जिसको आपके रीति रिवाज नहीं पता हैं, जो आपके कर्म कांडों से दूर है। वो नेक दिल से कर्म कांड करना चाहता है। वो एक सच्‍चे अनुयायी की तरह हर कुछ करता है। भले ही फिर इस्‍लाम के अल्‍लाह को खुश करने की बात हो। यहां हिंदू देव को प्रसन्‍न करने की बात हो या फिर ईसा मसीह को मनाने की बात हो।

पीके अनजान दुनिया में पहुंचे एक व्‍यक्‍ति की कहानी है। जो रेगिस्‍तान में किसी दुनिया से उतरता है। उसका एक यंत्र चोरी हो जाता है। अब उसकी तलाश में वो दर बर दर भटकता है। जाहिर सी बात है, यदि वो हिन्‍दुस्‍तान की धरती पर उतरा है, तो यहां पर उसका पाला भगवान से तो पड़ना ही चाहिए।

हम अपने तरीकों से सोचते हैं। सावन के अंधे को सब हरा दिखता है। उसी तरह, जब पीके अपने राजस्‍थानी दोस्‍त संजय दत्‍त का हाथ छूता है तो उसको उसमें समलिंगी नजर आने लगता है। वो महिलाओं का हाथ छूने निकलता है तो भीड़ उसके पीछे पड़ जाती है। लेकिन, उसकी समस्‍या दूसरी है। मगर, मानव उसको अपने नजरिया से हल करने की कोशिश करता है।

उसका दोस्‍त उसको वेश्‍या के यहां ले जाता है। जहां से पीके भोजपुरी सीखकर निकलता है। पीके के लिए कपड़ों का जुगाड़ केवल डांसिंग गाड़ियों से होता है। उड़ती गाड़ियों का मतलब होता है रोहित शेट्टी और अब आप हिलती गाड़ियों का मतलब राजकुमार हिरानी कह सकते हैं। हालांकि, बच्‍चों के सामने आप हिलती गाड़ियों की पूर्ण रूप से व्‍याख्‍या नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको झूठ का सहारा लेना होगा।

ऐसा नहीं कि भगवान मदद नहीं करते, जब पीके एक कार्यक्रम में शिवजी की वेशभूषा धारे व्‍यक्‍ति का पीछा करता है तो वह अपनी खोई हुई चीज के पास पहुंच जाता है। जो सीन कहीं न कहीं भगवान में आस्‍था रखने के तर्क को सही ठहराता है। आप धर्म के नाम पर होने वाले ढोंग को तो नकार सकते हैं, लेकिन इस सृष्‍टि को चलाने वाले को नहीं, उसको आप किसी भी नाम से पुकार सकते हैं।

कहानी में आगे मीडिया एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हुए नजर आता है। पीके मीडिया के साथ मिलकर एक ढोंगी बाबा की ताल ठोकता है, जिसके भक्‍तों ने पूर्व में न्‍यूज चैनल के एडिटर को खिलाफ छापने पर त्रिशूल का मार्क दिया था। मीडिया के कारण पूरे देश में एक जागरूकता का माहौल उत्‍पन्‍न होता है। लोग अपने मोबाइलों से वीडियो क्‍लिप बनाना बनाना न्‍यूज चैनल को भेजने लगते हैं। फिल्‍म के अंत में राजकुमार हिरानी शुरूआत में टूटी हुई प्रेम कहानी को एक सुखद अंत देते हैं।

इस फिल्‍म को आप सीधे तौर पर एक मनोरंजक एवं व्‍यवसाय को ध्‍यान में रखकर बनाई फिल्‍म कह सकते हैं, जहां पर दर्शकों के लिए हिलती गाड़ियां, जेब से गिरते कंडोम, किसिंग सीन हैं। हालांकि, इस फिल्‍म का काफी हिस्‍सा धर्म के नाम पर दुकानें खोलने वाले लोगों पर आधारित है।

इस फिल्‍म में आपको ओह माय गॉड जैसे तर्क नहीं मिलेंगे। ओह माय गॉड धर्म में चल रहे पाखंडों को केंद्र में रखकर रची गई एक लीक से हटकर फिल्‍म थी। उस फिल्‍म में आपको राजकुमार हिरानी वाला मसाला नहीं मिलेगा। इस फिल्‍म में एक नौजवान लड़की अपने न्‍यूज चैनल के संपादक के सामने खड़ी होकर सेक्‍स की बातों पर खूब हंसती है। जो कहीं न कहीं बदलते परिवेश को उजागर करती है।

इस फिल्‍म को लेकर होने वाला विरोध कहीं न कहीं फिल्‍म के प्रचार का हथकंडा है। आमिर ख़ान से बेहतर प्रचार रणनीति बॉलीवुड के किसी भी अभिनेता के पास नहीं है। इस फिल्‍म को पूर्ण रूप से गुप्‍त रखा गया था और फिल्‍म के रिलीज के साथ ही समर्थक और विरोधी खड़े किए गए। फिल्‍म को अधिक महत्‍व मिलेगा। लोगों के भीतर देखने की उत्‍सुकता जागी।

Saturday, December 27, 2014

'बजरंग दल' के नाम एक खुला पत्र

नमस्‍कार।

मुझे समाचार मिला है कि आप 'बहू लाओ, बेटी बचाओ' अभियान की शुरूआत करने जा रहे हैं। इस अभियान के तहत आप मुस्‍लिम या ईसाई लड़कियों के लिए हिन्‍दू परिवारों के दरवाजे खोलेंगे। यदि हिंदू लड़के के मां बाप ने इंकार किया तो आप बड़े शालीन तरीके से समझाएंगे। उम्‍मीद करता हूं, आप घर में अपनी नंगी तलवारें या हॉकियां लेकर नहीं घुसेंगे, जैसे कि आपकी छवि मेरी निगाह में है। यह तो बात हुई अपनी बहू लाओ अभियान की।

अब बेटी बचाओ अभियान की बात करते हैं, जो यकीनन भ्रूण हत्‍या से जुड़ा हुआ नहीं क्‍योंकि आपकी मुहिम लव जिहाद के खिलाफ है, तो इससे स्‍पष्‍ट होता है कि हिंदू लड़की को यदि किसी मुस्‍लिम लड़के से प्रेम हो जाए तो उसको सीने में दबाकर रखना होगा। हालांकि, आप ने स्‍पष्‍ट नहीं कि इस मामले में आपकी गतिविधि किस तरह की होगी। आप दोनों परिवारों को किस तरह बैठकर समझाएंगे। उम्‍मीद करता हूं, आपका इस मामले में भी तरीका बहुत शालीन होगा।

एक अन्‍य बात, आपको याद दिलाना चाहता हूं, आज एक धार्मिक समारोह ने आरएसएस के सर संचालक निवेदन किया है कि इस तरह की कोई कार्रवाई न करें, जिससे सरकार के कार्य प्रभावित हों। तो मैं उम्‍मीद कर सकता हूं कि उनकी बात का मान रखेंगे।

एक अन्‍य सवाल मन में उठ रहा है कि यदि आपकी तरह मुस्‍लिम या ईसाई समुदाय ने अभियान चला लिया तो उस स्‍थिति में आपकी गतिविधि किस तरह की होगी। उम्‍मीद उपरोक्‍त ही रखता हूं, आप अहिंसा पथ पर चलते हुए मामलों को शांत करेंगे।

अन्‍य संदेह है, आपका 'बहू लाओ, बेटी बचाओ' अभियान कहीं न कहीं हिंदू लड़कों को छूट दे रहा है, और हिंदू लड़कियों को बंदिश में बांध रहा है। हालांकि, सुनने में आया है कि प्‍यार अंधा और बहरा होता है। मेरा तो अनुभव है।

आजकल बाजार में पीके का विरोध भी जोरदार हो रहा है। सुनना है कि इस फिल्‍म की शुरूआत आपकी मुहिम को बल प्रदान करती है, जहां एक लड़का पाकिस्‍तानी मुस्‍लिम लड़का हिंदू लड़की को धोखा देता है। हालांकि, फिल्‍म का अंत आपकी मुहिम को जोरदार झटका देते हुए लव जिहाद के पलड़े को मजबूत कर देता है। इस फिल्‍म में मुस्‍लिम लड़के और एक हिंदू लड़की का प्रेम जीत जाता है। हां, एक अन्‍य बात कहना चाहता हूं, यदि दोनों में से किसी का धर्म भी एक दूसरे पर हावी होने लगा तो प्रेम का धागा टूट जाएगा।  


एक अन्‍य डर है। आजकल की लड़कियां संघर्षवादी हो चुकी हैं। इसलिए इस बात का भी डर है कि कहीं वो आपके खिलाफ सड़कों पर न उतर आएं। अगर, इस तरह का घटनाक्रम घटित हो गया तो सरकार को लेने के देने पड़ जाएंगे, और आरएसएस के सर संचालक मोहन भागवत की बात की इज्‍जत चली जाएगी।

अंत की ओर...
वर्ष 2014 में देश की जनता ने भाजपा को विकास के नाम पर बहुमत दिया है। कहीं, आपकी कार्रवाईयों के कारण देश के भीतर मिस्र से हालात न बन जाएं। जहां स्‍वतंत्र सरकार चुनने के बाद लोगों को सरकार गिराने के लिए सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर होना पड़ गया था।

एक सुझाव....
यदि असली हिंदुत्‍व को बचाना है तो ईसाईयत की तरह बड़े बड़े स्‍कूल कॉलेज खोलो, जहां पर हिंदु परिवारों सहित अन्‍य धर्मों एवं जातियों के बच्‍चे पढ़ सकें। आज हमारे बच्‍चे सेंट जॉसेफ या सेंट जेवियर स्‍कूलों में केवल इसलिए पढ़ने के लिए जाते हैं, ताकि प्रतियोगितावादी समाज में वो पिछड़ न जाएं।

टो टूक बात....
राजनीति से ऊपर उठकर सोचना सीखें। इस तरह की गतिविधियों से किसी का भला नहीं हुआ और न होगा। यदि हिंदुत्‍व को निखरते हुए देखना चाहते हैं तो उसकी उदारता वाले पक्ष पर ध्‍यान दो। हिंदुत्‍व वो समुद्र है, जिससे पानी भाव बन बादलों में जाता है, और पहाड़ों पर बरस कर वापिस समुद्र में मिल जाता है। आप हिंदुत्‍व को केवल भारत की सीमा में बांधे रखना चाहते हैं, जबकि भारत के अध्‍यात्‍म शक्‍ति को मानने वाले आज विश्‍व के हर कोने में हैं। वो आपके कारण नहीं, बल्‍कि अन्‍य अध्‍यात्‍म गुरूओं के कारण।

आपका शुभचिंतक
जन्‍म से हिंदु,
कर्म से मानव

सलमान ख़ान, बॉलीवुड और समाज

आज बॉलीवुड के सबसे हैंडसम अभिनेता यानी सलमान खान का जन्‍मदिवस है। बॉलीवुड में आजकल सलमान खान का जलवा है। उनकी फिल्‍म बड़े पर्दे पर आते ही सुपर डुपर हिट हो जाती है। हालांकि, कभी कभी उनकी फिल्‍म समीक्षकों को नाराज जरूर करती है। बॉलीवुड के इस हैंडसम हंक को उनके प्रशंसकों ने सोशल मीडिया पर जन्मदिन की बधाई देना शुरू किया तो सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट टि्वटर पर #HappyBirthdaySalmanKhan ट्रेंड जोर पकड़ने लग गया।

अपने जन्‍मदिवस के मौके यानी शनिवार को सलमान ख़ान ने रियालिटी शो 'बिग बॉस' की मेज़बानी से छुट्टी लेते हुए अपनी जिम्‍मेदारी हास्य कलाकार कपिल शर्मा को सौंप दी। बीइंग ह्यूमन से समाज सेवा के क्षेत्र में योगदान देने वाले सलमान ख़ान के जन्‍मदिवस किसी चैनल पर उनका विशेष इंटरव्‍यू न चले। यह कैसे हो सकता है।

शनिवार की शाम को न्‍यूज 24 पर सलमान ख़ान मुझे अनुराधा प्रसाद के साथ कार्यक्रम आमने सामने में नजर आए। इस इंटरव्‍यू में सलमान ख़ान ने एक जगह नजर नहीं टिकाई। वो हर सवाल के जवाब पर अपनी नजर को इधर उधर ले जाते हुए नजर आए।

इस इंटरव्‍यू के दौरान मुझे सलमान ख़ान के भीतर एक अलग इंसान नजर आया, जो शायद मीडियाई ख़बरों में कहीं नप कुचल जाता है। इस मंच पर सलमान ख़ान खुलकर बात करते नजर आए। सलमान ख़ान चाहते हैं कि वो बतौर अभिनेता अगले 25 साल तक काम करें। अगर, उनकी उम्र जल्‍दी से दिखने लगी तो वो निर्देशन की तरफ रुख कर सकते हैं।

सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि सलमान ख़ान का पैसे संबंधी पूरा काम उनके पिता देखते हैं। सलमान ख़ान की दूसरी तमन्‍ना है कि उनके जाने के बाद भी उनके बीइंग ह्यूमन चेरिटेबल ट्रस्‍ट को चलते रहना चाहिए। इस संस्‍थान के लिए पेटिंग के जरिये भी सलमान ख़ान पैसा जुटाते हैं।

जब अनुराधा प्रसाद सलमान ख़ान से सवाल करती हैं कि सलमान ख़ान की हर पेटिंग में एक ही भगवान क्‍यों होता है, जो जीसस सा दिखाई देता है तो सलमान ख़ान कहते हैं कि वो आंखों से ऊपर का भाग नहीं बनाते, उनकी पेटिंग के बीच का देवता आंखों से शुरू होता है, जिसकी आंखों से मानवता एवं करुणा झलकती है। उनका तर्क है कि आंखों से ऊपर धर्म शुरू होता है, टोपी लगा लो तो मुस्‍लिम, टीका लगा लो तो हिन्‍दू इत्‍यादि।

एक अन्‍य सवाल के जवाब में अपने अतीत को याद करते हुए सलमान ख़ान कहते हैं कि जब वो पूरे परिवार के साथ बैठकर फिल्‍म देख रहे होते थे, अचानक किसिंग सीन आता तो उनका पूरा परिवार असहज महसूस करता था। इसलिए, उनको नहीं लगता कि हर कहानी के अंदर जान डालने के लिए किसिंग सीनों का होना अति जरूरी है। सलमान ख़ान अनुसार, बॉलीवुड को अच्‍छी एवं गाली गालौच रहित पारिवारिक फिल्‍में बनानी चाहिए। उनका मानना है कि पारिवारिक फिल्‍मों के लिए पूरा परिवार सिनेमा हाल जाता है। मगर, नंगी लुच्‍ची फिल्‍मों के लिए कुछ अवारगर्द लड़के जाते हैं। कुछ डुप्‍लीकेट रास्‍तों के जरिये घर पर लाकर अकेले में फिल्‍म देखते हैं। वांटेड को यू ए सर्टिफिकेट देने को लेकर उन्‍होंने निजी तौर पर एतराज जताया। उनका कहना था, इससे सरकार को नुकसान होता है। हालांकि, एक्‍शन फिल्‍में तो बच्‍चे घर पर भी देखते हैं।

मैंने आज तक सलमान ख़ान का कभी लाइव इंटरव्‍यू नहीं देखा, और शायद ना ही कभी पढ़ा। सलमान ख़ान को बड़े पर्दे पर देखा या मीडिया में उसके विवादों के कारण उसको जाना। हालांकि, उनके पिता का इंटरव्‍यू एक बार पढ़ा था, जिसमें उनके पिता ने कहा था, यदि मैं आत्‍मकथा लिखूंगा तो बॉलीवुड नंगा हो जाएगा।

यकीनन आज की इंटरव्‍यू में सलमान ख़ान के भीतर उस साफगोई की झलक देखी। हालांकि, आज सलमान ख़ान ने भी अपनी आत्‍मकथा या किसी से जीवनी लिखवाने की बात से इंकार कर दिया। सलमान ख़ान को गुस्‍सा आता है, इसका मुख्‍य कारण सलमान ख़ान का भावुक होना एवं स्‍पष्‍टवादी होना हो सकता है। मुझे लगता है कि सलमान ख़ान के अभिनेत्रियों के साथ प्रेम संबंध बनने के बाद टूटने का मुख्‍य कारण भावनात्‍मक स्‍वभाव है।

जब मीडिया के पास ख़बर नहीं होती तो देश की सबसे बड़ी समस्‍या के रूप में सलमान ख़ान की शादी की बात उभरकर सामने आती है।

मोदी शीत लहर, कोहरे के दिन और कांग्रेस चिंतन



कोहरे के दिनों में नारियल तेल बोतल से बाहर आना बंद कर देता है। नसों में रक्त भी जमा जमा सा लगता है। हाथों को मसलने के सिवाये कुछ दूसरा सूझता भी नहीं है। मगर, ऐसे कोहरे के दिनों में सबसे पुरानी पार्टी के दिमागी कलपुर्जे हरकत करने लगे हैं। सुनने में आया है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अब जनता से जानना चाहेगी कि कहीं उसकी हिंदू विरोधी छवि तो नहीं बन गई।

कांग्रेसी नेताओं ने अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सोच को नमन तो किया होगा। नमन तो बनता है, क्योंकि निरंतर रसतल में जा रही कांग्रेस को आत्ममंथन की बड़ी जरूरत है, और आत्ममंथन के लिए तांबू गाढ़ने इत्यादि की परंपरा रही है। ऐसे आदेश पारित हो सकता था, मगर ऐसा नहीं हुआ। और गलती से आत्ममंथन के लिए चुनाव स्थल में दिल्ली या कश्मीर घाटी तय हो जाती तो क्या होता ? चलो। कोहरे के दिनों में कुछ तो सूझ रहा है। वरना, इस मौसम में हाथ को हाथ ही सूझता है या रजाई इत्यादि।

मगर, हैरानी तो इस बात की है कि कांग्रेस को धर्म से आगे कुछ सूझता नहीं। कांग्रेस की इस समझ ने उसको रसतल में उतार दिया। उतना भाजपा ने हिंदू समुदाय को विश्वास नहीं दिलाया, जितना कांग्रेस ने अपने भाषणों में लोगों को विश्वास दिलाया कि भारतीय जनता पार्टी के बिना हिंदू समुदाय का दूसरा कोई भला नहीं कर पाएगा। जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने हिंदुत्व वाले मास्क को उतारकर चुनाव लड़ने का पूरा प्रयत्न किया। अंत, भाजपा सफल भी हुई।

भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी की उस छवि का इस्तेमाल किया, जिसका क्रिएशन स्वयं नरेंद्र मोदी ने बारह साल में किया था। नरेंद्र मोदी ने अपने आलोचक परंपरागत मीडिया से दूरी करते हुए नए उभरते सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया, जो युवा पीढ़ी से संवाद का सबसे बड़ा माध्यम है। लोकप्रियता का रॉकेट लगने से नरेंद्र मोदी का कद इतना ऊंचा हो गया कि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का कद छोटा लगने लगा।

इसको कांग्रेस समय रहते भांप नहीं पाई। यकीनन, नरेंद्र मोदी के प्रति भाजपा के कार्यकर्ताओं ने उसी तरह का जोश एवं उत्साह दिखाया, जो राहुल गांधी के राजनीतिक प्रवेश पर कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं ने दिखाया था। मगर, राहुल गांधी अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बनाए रखने में असफल रहे। इसका मुख्य कारण है कि राहुल गांधी राजनीति में दिल से नहीं आए। उनको केवल विरासत संभालने के लिए राजनीति में उतारा गया है। जब जब उनको जिम्मेदारी लेने के लिए आगे किया गया, तब तब उन्होंने जिम्मेदारी उठाने से इंकार कर दिया। और, आप इतिहास के पन्ने पलटकर देख लें। जब जब भी किसी साम्राज्य का दायित्व किसी कमजोर शासक के पास गया है। उस साम्राज्य का विध्वंस हुआ है।

कांग्रेस को एक गैर गांधी परिवार नेता की जरूरत थी। उसको कांग्रेस ने कभी स्वीकार नहीं किया। इसका दूसरा कारण यह भी रहा है कि इसके दावेदार बहुत निकल आते और कांग्रेस पार्टी की अखंडता खतरे में पड़ जाती, इसलिए कांग्रेस कभी सोनिया गांधी के प्रभामंडल से बाहर आने को तैयार नहीं हो पाई। आज जो राजनीतिक दल अन्य राज्यों में मजबूत स्थिति में हैं, वो कांग्रेस से निकले हुए नेताओं के हैं। जनता तो आज भी कांग्रेस नेताओं के साथ है, मगर अब कांग्रेस के चेहरे अलग अलग हो गए हैं।

और, ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी एक सुसंगठित संगठन के रूप में उभरकर सामने आई। भाजपा ने वो साहस किया जो कांग्रेस नहीं कर पाई। शायद, भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं था, अब सब कुछ दांव पर लगाने का समय था, जो भाजपा के नेतृत्व ने किया। नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बनाना भाजपा के लिए आसान न था, मगर भाजपा नेतृत्व ने साहस दिखाया। अपने कुछ नेताओं को दरकिनार किया, जो शायद समय की बड़ी जरूरत थी। और, नरेंद्र मोदी ने अपनी नई छवि का पूर्ण सहारा लिया। विकास के रथ पर सवार हो गए और सीधे दिल्ली की सत्ता तक पहुंच गए।

मोदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि अन्य राज्यों में भी राजनीतिक समीकरण बदल गए और कांग्रेस जैसी पार्टी को जनता से संवाद करने की सूझने लगी है। मगर, हैरानी है कि कांग्रेस उस मुद्दे पर लोगों से पूछने निकल रही है, जो उसकी हार का सबसे बड़ा कारक है। अब कांग्रेस को समझ आना चाहिए कि जनता को केवल धर्म के नाम पर ठगा नहीं जा सकता है।

कांग्रेस को भाजपा के प्रमुख अमित शाह की बात को उदारहृदय से स्वीकार करना चाहिए, जो राजनीतिक विश्लेषक लंबे समय से कह रहे हैं कि राहुल गांधी में नेतृत्व की क्षमता नहीं है। और, कांग्रेस का रिमोर्ट केवल सोनिया गांधी के हाथों मे है। कांग्रेस को गैर गांधी परिवार नेता पर विचार करना होगा, जो कांग्रेस को रसतल से बाहर निकालने के लिए समक्ष हो। सबसे अहम बात तो यह कि नया नेता कांग्रेस के प्रति जवाबदेह हो, नहीं कि गांधी परिवार के लिए।

वरना, जिस तरह अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा देशव्यापी अभियान चला रही है। उसको देखते हुए लगता है कि जल्द ही कांग्रेस के कुछ बड़े नेता बीजेपी का दामन थाम सकते हैं। राजनीति अवसरवाद का दूसरा नाम बन चुकी है, इसलिए कांग्रेस को नेताओं को लेकर आश्वस्त होने से बचना चाहिए। कांग्रेस को धर्म से ऊपर उठकर देश के अन्य मुद्दों पर बात करनी चाहिए। साथ ही, एक अच्छे विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए।

Wednesday, December 24, 2014

गधे भी हिंदू मुस्‍लिम होते हैं !

ठंड के कारण हाथ पैर कांप रहे थे। घर के सारे खिड़कियां दरवाजे बंद थे, ताकि ठंड अंदर घुस न पाए। मैं टेलीविजन पर चैनलों वाली गिटरपिटर सुनने में मशगूल था। अचानक, घर के मुख्‍य द्वार से किसी चीज के टकराने की आवाज आई। मैंने टेलीविजन बंद करते हुए तपाक से दरवाजा खोला। मैं देखता हूं कि एक गधा हांप रहा है। मैंने सड़कों पर गधों को अलसियों की तरह धीमे धीमे चलते हुए देखा, मगर यह पहला गधा था, जो मैथारन में दौड़ रहे किसी व्‍यक्‍ति की तरह दौड़ते हुए मेरे घर के मुख्‍य द्वार से आ टकराया।

मैंने उसके साथ हमदर्दी जताई और घर के भीतर ले लाया। मेरे पैरों से जमीन निकल गई, जब मैंने उसको बोलते हुए सुना। गधा काफी समझदार मालूम पड़ रहा था। मैंने उससे पूछा कि आखिर तुम इतना हांप क्‍यों रहे हो ?, आखिर माजरा क्‍या है?

गधा बोला, छोड़ो जाने दो। शुक्रिया, जो आपने घर में पनाह दी। मैंने कहा, कुछ तो बताओ। गधे ने मेरा निवेदन स्‍वीकार करते हुए कहा -

'दिल्‍ली चलो' का नारा प्रत्‍येक छोटे बड़े व्‍यक्‍ति की जुबान पर था और एक तरह से मैं भी इस नारे से प्रभावित होकर दिल्‍ली जा रहा था। किंतु मुझे यह मालूम न था कि रास्‍ते में क्‍या विपत्‍ति आएगी ? रास्‍ते में एक स्‍थान पर मैंने देखा, एक मुसलमान बढ़ई शरअई दाढ़ी रखे हुए एक छोटी सी गठरी बगल में दबाए, एक छोटे से गांव से भागकर सड़क पर आ रहा था। मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे अपनी पीठ पर सवार कर लिया और तेज कदमों से चलने लगा ताकि उस गांव के फसादी उसका पीछा न कर सकें। मैं बहुत आगे निकल गया और मन ही मन बहु प्रसन्‍न हुआ कि चलो, मेरे कारण एक निर्दोष की जान बच गई। इतने में क्‍या देखता हूं कि बहुत से फसादी रास्‍ता रोके खड़े हैं।

एक फसादी ने हमारी ओर देखकर कहा, देखा इस बदमाश मुसलमान को, न जाने किस बेचारे हिंदू का गधा चुराए लिए जा रहा है। मुसलमान बढ़ई ने अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, मगर किसी ने एक न सुनी। उसे फसदियों ने मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक फसादी ने बांध लिया और अपने घर की ओर ले चला।

जब हम आगे बढ़े तो रास्‍ते में मुसलमानों के कुछ गांव पड़ते थे। यहां पर कुछेक दूसरी ओर के फसादी आगे बढ़े। एक ने कहा, देखा, यह बेचारा गधा किसी मुसलमान का मालूम होता है, जिसे वह हिंदू फसादी घेरे लिए जा रहा है। उस बेचारे ने भी अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, लेकिन किसी ने एक न सुनी और उसका सफाया हो गया। और मैं एक मौलवी साहब के हिस्‍से में आया। जो मुझे उसी रस्‍सी से पकड़कर अपनी मस्‍जिद की ओर ले चले। रास्‍ते में मैंने मौलवी साहब के आगे बहुत अनुनय विनय की।

मैं - हजरत, मुझे छोड़ दीजिए।
मौलवी - यह कैसे हो सकता है। तुम माले गनीमत हो।
मैं - हुजूर। माले गनीमत नहीं हूं। गनीमत यह है कि मैं एक गधा हूं, वरना अब तक मारा गया होता।
मौलवी - अच्‍छा, यह बताओ, तुम हिंदू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं- हुजूर न मैं हिंदू, न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मजहब नहीं होता।
मौलवी - मेरे सवाल का ठीक ठीक जवाब दे।
मैं - ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या हिंदू तो गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता।
मौलबी साहेब ने मुझे मस्‍जिद के बाहर एक खूंटे से बांध दिया और स्‍वयं भीतर चले गए। मैंने मौका गनीमत जाना और रस्‍सी तोड़कर वहां से निकल भागा। ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मीलों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उपरोक्‍त व्‍यंग विश्‍व ख्‍याति प्राप्‍त कथाकार कृश्‍न चन्‍दर के हास्‍य व्‍यंग से भरपूर उपन्‍यास एक गधे की आत्‍मकथा से लिया गया है, जो हिन्‍द पॉकेट बुक्‍स द्वारा प्रकाशित किया गया है।

इस उपन्‍यास को केवल इसका शीर्षक देखकर मैंने काफी महीने पहले खरीदा था। मगर, कभी पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाया। आज शाम को ऑफिस से घर आने पर अपनी अलमारी से इस उपन्‍यास को निकाला और पढ़ने लगा।

पढ़ते पढ़ते, मैं उपन्‍यास के इस खूबसूरत व्‍यंग पर पहुंचा, जो आज के समय में काफी प्रासंगिक मालूम पड़ता है। हिन्‍द पॉकेट बुक्‍स की उत्‍कृष्‍ट भेंट देशभर के सभी बुक स्‍टालों पर उपलब्‍ध है। हास्‍य व्‍यंग से भरपूर उपन्‍यास में कृश्‍न चन्‍दर ने समाज का एक अनूठा विश्‍लेषण किया है।

Tuesday, December 23, 2014

'मोदी' सेर तो भागवत 'सवा सेर'

धर्म परिवर्तन के मामले में देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मौन रहकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पीछे छोड़ दिया। गुप्‍त ख़बरों ने अनुसार, नरेंद्र मोदी ने सख्‍त संदेश देने के लिए अपने सांसदों एवं पार्टी वर्करों को खूब लताड़ लगाई। मगर, सार्वजनिक मंच से एक भी शब्‍द उनकी जुबान से नहीं निकल पा रहा है।

प्रधान मंत्री का मौन अपने आप में बहुत कुछ कहता है। विशेषकर, उस समय जब देश का प्रधान मंत्री छोटे छोटे मामलों में तो टि्वट कर अपनी राय जनता के बीच रख रहा हो और धर्म परिवर्तन के मामले में खुलकर एक शब्‍द भी न कहे। हालांकि, विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज ने तो धर्म परिवर्तन पर संघ और बीजेपी की विचारधारा को अलग अलग कहकर मामले में अपनी उपस्‍थिति दर्ज करवाई।

पाकिस्‍तान की लाल मस्‍जिद के मौलाना ने जब एक टेलीविजन चैनल पर तालिबान के विपरीत प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया था, तो वहां की जनता ने लाल मस्‍जिद के बहार एकत्र होकर रोष प्रदर्शन किया था। मगर, भारत में प्रधान मंत्री के मौन के खिलाफ केवल राजनीतिक दल अपना विरोध दर्ज करवा रहे हैं, जिसको मीडिया केवल और केवल सियासी खेल का एक हिस्‍सा कहकर नकार देता है।

नरेंद्र मोदी की चुप्‍पी उस समय अधिक काटने लगती है। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत कहते हैं, 'जवानों की जवानी जाने से पहले देश एक हिंदू राष्‍ट्र होगा।' इससे पहले देश के सरकारी चैनलों पर मोहन भागवत के एक समारोह का लाइव प्रसारण दिखाया गया था, जो कहीं न कहीं सरकार और संघ के बीच के रिश्‍ते को उजागर करता है। हालांकि, मीडिया में बीजेपी नेता और सरसंघसंचालक दोनों इस रिश्‍ते को सिरे से खारिज करते हैं। किसी ने कहा कि इश्‍क और मुश्‍क छुपाए नहीं छुपते।

हालांकि, देश के प्रधानमंत्री पर्दे में रहकर खेल खेलने में विश्वास करते हैं। इस तरह से उनकी भूमिका प्रयत्क्ष होने की बजाय अप्रयत्क्ष हो जाती है। आप उन पर सीखी उंगली नहीं उठा पाएंगे। उनका हिंदू राष्ट्रवादी होना पर्दे में रहता है, विकास पुरुष होना बाहर। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उनको राजधर्म निभाने की बात कहने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी भी पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं हैं।

जबकि संघ सर संचालक मोहन भागवत खुल्लम खुला खेल खेलने का दम रखते हैं। तभी तो अब मोहन भागवत सीधे तौर पर हिंदुत्व की बात उछाल रहे हैं। हालांकि, उन्होंने चुनावों के दौरान भी आरएसएस स्वयं सेवकों को चेतावनी दे दी थी कि हम नमो नमो करने के लिए नहीं हैं।

कहीं न कहीं, मोदी आरएसएस से कटने का प्रयास कर रहे हैं। मगर, संघ सर संचालक जवानों की जवानी जाने से पहले हिंदू राष्ट्र की बात रखते हुए प्रधानमंत्री को मैदान में लाने का प्रयास कर रहे हैं। इतना ही नहीं, अब संघ ने एक नया जाल बुना है। उम्मीद है कि जिसमें नरेंद्र मोदी जरूर फंसेंगे।

अंग्रेजी समाचार पत्र द इंडियन एक्‍सप्रेस के अनुसार गुजरात के अहमदाबाद शहर के बाहरी इलाके में संघ की ओर से एक प्रोग्राम का आयोजन किया जा रहा है। यह समारोह संघ की ताकत का प्रदर्शन करने के लिए किया जा रहा है। इस समारोह में मुख्‍यातिथि के तौर पर नरेंद्र मोदी को शामिल करने के लिए न्‍यौता भेज दिया गया है। संघ ने उस समय का चुनाव किया है। जब देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के दौरे पर होंगे। सबसे दिलचस्‍प बात तो यह है कि इस समारोह को नरेंद्र मोदी के गुरू वकील साहिब की याद में मनाया जा रहा है।

संघ सरसंचालक मोहन भागवत भी अच्‍छे रणनीतिकार हैं। इस बात को अंदाजा तो समारोह की आयोजन तारीख और समर्पण से लगाया जा रहा है। अब नरेंद्र मोदी अपने गुरू को समर्पित समारोह में आएंगे या नहीं, यह बात तो मोदी पर निर्भर करती है। मगर, मोहन भागवत ने खूबसूरत जाल बुन दिया है। इस देखते हुए हम कह सकते हैं कि मोदी सेर हैं तो भागवत सवा सेर हैं।

Monday, December 22, 2014

शिव के मंदिर में भगवान मोदी की अराधना

'स्वार्थ' तेरा भी जवाब नहीं। सुनते ही स्वार्थ मेरे पर क्रोधित हो उठा। बोला, मेरा कसूर तो बताओ। तुम मानव से कुछ भी करवा सकते हैं, मैंने उच्च स्वर में कहा। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं, मुझे परमात्मा ने ऐसा ही बनाया है, स्वार्थ ने कहा।

मैंने कहा, आज तुम्हारे कारण परमात्मा का जन्म हो रहा है। इस कारण तो मैं दुविधा में हूं। निर्माता का कार्य सृजन होता है। मगर, तुम तो निर्माता का सृजन कर रहे हो, जिसने तुम्हारा सृजन किया है। स्वार्थ ने हैरत भरे अंदाज में पूछा, तुम साफ साफ कहो ना। तुम कहना क्या चाहते हो ।

मैंने कहा, आज तुमने एक इंसान को भगवान शिव से बड़ा कर दिया। स्वार्थ ने कहा, तुम अब पहेली मत बुझो। पहेली के सारे कपड़े उतारकर सच से रूबरू करवाओ। मैंने कहा, तुमने उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के भगवानपुर गांव का नाम तो सुना होगा। स्वार्थ ने कहा, भगवानपुर भी  होगा, बहुत सारे गांव हैं। मैंने कहा, इस गांव में शिव भगवान का एक प्राचीन मंदिर है। इसमें कौन सी नई बात है, भारत में हर मंदिर के बाहर प्राचीन ही लिखा होता है, स्वार्थ ने मेरी बात काटते हुए कहा। मैंने कहा, नहीं नहीं, सच में 300 साल पुराना मंदिर है। मगर अब यह शिवजी का नहीं रहा। स्वार्थ ने कहा, नहीं रहा, मतलब। मैंने कहा, पिछले लोक सभा चुनावों में इस मंदिर को नया भगवान मिल गया, तुम्हारे कारण।

स्वार्थ कुर्सी से कूद उठा,  और बोला, मैं तो इस गांव के बारे में जानता भी नहीं, तो मेरे कारण इस गांव के मंदिर को भगवान किस तरह मिल गया। मैंने कहा, शांत रहो। तुम मानव के भीतर वास करते हो। और उस मानव ने तुम्हारे कारण इस मंदिर को नया भगवान दे दिया क्योंकि अब तुमको शिव पूरा नहीं कर पा रहे थे। स्वार्थ ने कहा, अच्छा तो नया भगवान कौन है ? मैंने कहा, सुनने में आया है कि नया भगवान श्री नरेंद्र मोदी हैं। स्वार्थ ने कहा, हैं!। मैंने कहा, हां, बिल्कुल, इस मंदिर में मोदी की तीन फुट की मूर्ति स्थापित की गई है। स्वार्थ ने सुनते ही कहा, ओह माय गॉड।

मैंने कहा, अरे आगे तो सुनो। स्वार्थ ने कहा, सुनने को बचा ही क्या है ? मैंने कहा, नहीं नहीं, अब गांव वाले मोदी के गुणगान में मिश्रा द्वारा रचित भजन को प्रतिदिन गुनगुनाते हैं। शिव के साथ मोदी भगवान की भी प्रार्थना और आरती भी होती है । हर दिन सुबह और शाम में भगवान शिव के साथ मोदी की आरती लगाई जाती है। 200 शब्दों में लिखी आरती की शुरुआत होती है- 'जय मोदी राजा, तेरे नाम का देश में डंका बाजा।'

स्वार्थ तो सिर पर पैर रख सरपट दौड़ लगाते हुए निकल लिया, और मैं बुड़बुड़ाता रहेगा नमो नमो।

Sunday, December 21, 2014

'घर वापसी' - देव अफीमची और द्वारकी की समस्‍या

''अजी चाय पी लें।'', उदास मन के साथ टेबल पर चाय का कप रखते हुए द्वारकी ने देव अफीमची से कहा।

देव अफीमची ने अख़बार के पन्‍ने पलटते हुए कहा, ''तुम आज इतना उदास साउंड को कर रही हो''।

'जी, ऐसा तो कुछ नहीं'', द्वारकी ने जवाब देते हुए कहा।

देव अफीमची ने अख़बार फोल्‍ड करते हुए कहा, 'द्वारकी, तुमको लगता है कि मैं केवल अख़बार ही पढ़ सकता है। पर ऐसा नहीं, मैं तुम्‍हारे बोलों से, तुम्‍हारे चेहरे से, तुम्‍हारे भीतर की हलचल को भी समझ सकता हूं। तुम बोलो, तुम्‍हें कौन सी बात परेशान की जा रही है''।

द्वारकी ने मन की गांठ खोलते हुए कहा, 'श्‍यामा चली जाएगी। उधर, जो आपके गार्डन को प्‍यार से पानी दे रहा है, रामू भी चला जाएगा। और इस उम्र में नए लोगों पर विश्‍वास करना, उनको काम पर रखना थोड़ा सा मुश्‍किल हो जाएगा'।

द्वारकी के रूंध चुके गले को आराम देते हुए देव अफीमची ने कहा, 'ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं रामू और श्‍यामा से बात करूंगा। अगर, उनका जाना बेहद जरूरी है। तो उनको हम अपने स्‍वार्थ के लिए रोक भी तो नहीं सकते। तुमको जाने के बारे में श्‍यामा ने या रामू ने कहा'।

द्वारकी ने देव अफीमची की तरफ देखते हुए कहा, 'जैसे तुमको तो कुछ पता नहीं, रोज अख़बार में आता है, बड़े बड़े अक्षरों में लिखा, घर वापसी'।

मुस्‍कराहट के साथ ठंडी सांस लेते हुए देव अफीमची ने कहा, 'अच्‍छा तो यह बात है, इसलिए तुम डर रही हो। तुमको लगता है कि श्‍यामा और रामू अपने घर बिहार चले जाएंगे।'

बात को काटते हुए द्वारकी ने कहा, 'नहीं तो और क्‍या?'।

तपाक जवाब देते हुए देव अफीमची ने कहा, 'ऐसा नहीं होगा, बिल्‍कुल नहीं होगा'।

'तुम इतने विश्‍वास से कैसे कह सकते हो'।, द्वारकी ने कड़क मूड में आते हुए कहा।

देव अफीमची ने द्वारकी का मनोबल बढ़ाते हुए कहा, 'जिस घर वापसी के बारे में तुमको भनक लगी है। वो घर वापसी कुछेक ईसाई एवं मुस्‍लिम परिवारों से जुड़ी हुई है, जो कभी हिंदू थे, और जुल्‍म के आगे झुककर या लालच में आकर मुस्‍लिम या ईसाई हो गए थे, जैसा हिंदू संगठन दावा करते हैं। हालांकि, मेरे हिसाब से तो मानवता से बड़ा दूसरा कोई धर्म हो ही नहीं सकता।'

द्वारकी ने खुश होते हुए कहा, 'तुम सच बोल रहे हो ना। हमारे श्‍यामा और रामू नहीं जाएंगे ना।'

'अब तुम चिंता छोड़ दो। तुम्‍हारे चेहरे पर मुस्‍कान अच्‍छी लगती है। सच तो यह है कि हमारी सरकार के पास इतना वक्‍त ही नहीं कि वो किसी रामू या श्‍यामा के बारे में सोचे। जो घर वापसी की राह देखते देखते विदेश में ही किसी घर के सदस्‍य हो जाते हैं।' क्षुब्‍ध होकर कुर्सी से उठते हुए देव अफीमची ने द्वारकी से कहा।

देव अफीमची तो टहलने के लिए निकल गया। मगर, टेलीविजन की दीवानी द्वारकी को एक नए सवाल ने घेर लिया। सवाल यह है कि अब 'क्‍योंकि स्‍मृति ईरानी भी कभी मल्‍होत्रा थी', और करीना कपूर खान, भी कभी सिर्फ करीना कपूर थी।

Saturday, December 20, 2014

नीलगाय की हत्‍या करना उचित या अनुचित

ठंड का मौसम था। खेतों में धूप की चिड़िया फुदक रही थी। मैं नहर के किनारे टहल रहा था। मेरी नजर एक काले रंग के जानवर पर पड़ी, जो दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा था। इस काले रंग के जानवर के पीछे कुत्‍तों का झुंड था। काला सा दिखने वाला जानवर 'नील गाय' थी, जिसको पंजाबी बोली में 'रोज' भी कहते हैं। हांपते हुए इसकी निगाह हम पर पड़ी और न आयें देखा - न बायें देखा, सीधा नहर में कूद गई। हमने कूत्‍तों को वहां से दौड़ा दिया और नील गाय को बचाने का प्रयास करने लगे। वैसे तो नील गाय स्‍वयं निकल जाती, मगर वो हांप रही थी , और नहर पूरी तरह पक्‍की थी, ऐसे में उसका स्‍वयं निकलना मुश्‍किल था। जैसे ही हमने उसको सही सलामत बाहर निकाला, तो उसने हमारे हाथों में दम तोड़ दिया। मैं हैरान हो गया। मुझे कुछ समझ नहीं आया कि आख़िर यह कैसे हुआ। हालांकि पिता ने यह कहते हुए जिज्ञासा को शांत कर दिया है कि इनका दिल बहुत कमजोर होता है।

यह किस्‍सा आज अचानक 20 साल बाद उस समय उभरकर मन की सतह पर आ गया। जब नीलगाय की समस्‍या को लेकर राजस्‍थान सरकार की तनातनी का मामला सामने आया। एक ख़बर के मुताबिक इस साल की शुरुआत में वसुंधरा राजे रंथमभौर गई थीं, जहां पर उनको किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा था। किसानों ने मुख्यमंत्री को बताया था कि नीलगायों के कारण बड़े पैमाने पर उनकी फसल बर्बाद हो रही है। किसानों की समस्‍या सुनने के बाद मुख्यमंत्री ने किसानों से वादा किया था कि उनकी सरकार नीलगाय की संख्या को कम करने में विशेष कानून अधिकार का इस्‍तेमाल करते हुए उनको राहत प्रदान करेगी।

मगर, अब वसुंधरा राजे के लिए समस्‍या उस समय खड़ी हो गई। जब उनके नेताओं ने यह कहते हुए उनके कदम का विरोध कर दिया कि आप इनकी हत्या कैसे कर सकते हैं, जिनके नाम में 'गाय' है ?। मगर सवाल तो यह भी उठता है कि अगर इस जानवर के नाम के पीछे गाय शब्‍द न आता तो क्‍या इनकी हत्‍या करना उचित होता ? लावारिश पशुओं एवं जानवरों के कारण किसानों की फसलों का नुकसान होता है। इसमें कोई दो राय नहीं। मगर, किसी जानवर को खत्‍म करने संबंधी कानून पास करना आखिर कहां तक उचित है ?

इसके अन्‍य विकल्‍पों पर विचार करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि नीलगाय को पकड़कर निकटवर्ती प्राणी संग्रहालयों में छोड़ा जाए। उनकी देखभाल के लिए अलग से आर्थिक मदद मुहैया करवाई जाए। हालांकि, इन प्राणियों से सरकार को किसी तरह का आर्थिक लाभ नहीं होगा। मगर, जरूरी तो नहीं कि हर चीज के साथ आर्थिक लाभ को जोड़कर देखा जाए। यदि ऐसा ही है तो जो लोग दूध पीने के बाद गायों को सड़कों पर या खेतों के आस पास खुले स्‍थानों में छोड़ देते हैं, जो फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं, तो नियम उनके लिए भी उसी तरह का होगा।

इस तरह की अक्‍सर कार्रवाईयां शहरों में होती हैं। नगर निगमों ने आवारा कुत्‍तों को शहर से हटाने के लिए आवारा कुत्‍तों के खिलाफ अभियान चलाया। नतीजा, यह हुआ कि आज शहरों की सड़कों पर आवारा कुत्‍तों की संख्‍या कम होगी, जो देसी नसल के हैं, जबकि विदेशी नसल के कुत्‍ते बड़ी शानदार के साथ सड़कों पर घूमते हैं, उनका मालिक, जो कहने को मालिक है, लेकिन वो जाता तो कुत्‍ते के पीछे पीछे है, और कभी मैंने किसी मालिक को पीछे चलते हुए नहीं देखा।

हमने अपने स्‍वार्थों के लिए पहाड़ों का सीना चीरकर बीच में से सड़कें निकाल ली, अब अगर सड़कों पर पहाड़ों कोई जानवर हमारा राह रोकता है तो हमको परेशानी होती है। हमने जंगलों को साफ कर दिया। अब अगर जंगलों में रहने वाली प्राणी हमारे खेतों में घुस रहे हैं, तो हम उनको खत्‍म करने की जिद्द पकड़े हुए हैं।

इस मामले में मेनिका गांधी का रूख किस तरह का होगा। यह भी देखने लायक होगा, क्‍योंकि वो स्‍वयं को वण प्राणियों की सबसे बड़ी रक्षक कहती हैं। और दिलचस्‍प बात तो यह है कि यह मामला अब राजस्‍थान से निकल केंद्र में पहुंच चुका है। उधर, राजस्थान के वन मंत्री राजकुमार रिनवा ने अंग्रेजी समाचार पत्र से कहा, ''राज्य की फसलों के लिए नीलगाय एक गंभीर समस्या बन चुकी हैं। हालांकि, यह अलग किस्म का जानवर है लेकिन ज्यादातर लोग इसको गाय कहते हैं। इसके साथ लोगों की भावना जुड़ी हुई है। मैं ब्राह्मण हूं और किसी जानवर की हत्या होने पर अच्छा महसूस नहीं होता है। फिर भी हम समाधान की तलाश में हैं। इन जानवरों को फसल वाले इलाके से बाहर करने पर विचार किया जा रहा है।'

एमएसजी - द मेसेंजर ऑफ गॉड, समाज और नजरिया

एक फिल्मी वेबसाइट पर 'एमएसजी-द मेसेंजर ऑफ गॉड' का विज्ञापन देखा। जब गौर से देखा तो पाया, यह पोस्टर डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम सिंह की आगामी फिल्म का है, जो 16 जनवरी को 4 भाषाओं में रिलीज होने जा रही है। इस विज्ञापन ने पीछे के रहस्य को जानने की उत्सुकता पैदा की। मैंने 'एमएसजी-द मेसेंजर ऑफ गॉड' का ट्रेलर देखा, जो किसी हिन्दी फिल्म को मात दिए जा रहा था, इसमें सबसे निराली बात तो यह थी कि पहली बार किसी अध्यात्म गुरू ने बड़े पर्दे पर इस तरह उतरने का साहस किया, विशेषकर उस समय जब देश में कुछ लोग देशभर में बरसों से संचालित डेरों को बंद करवाने के लिए कोशिशें कर रहे हैं, क्योंकि इन डेरों में बढ़ती अनुयायियों की आस्था एवं संख्या उनकी सदियों पुरानी जमी जमाई दुकानदारी को बहुत बड़ा सेटबैक लगा रही है।

इस डेरे के साथ मेरा 25 साल पुराना रिश्ता है। जब मैं चार पांच साल का था, तब से इस डेरे के संबंध में जानता हूं क्योंकि मेरे तत्कालीन गांव दारेवाला में डेरा सच्चा सौदा, सिरसा से संबद्घ एक छोटा सा डेरा था, जहां मैं अक्सर जाता था, अपने पिता के साथ या सत्संग में मां के साथ। मेरी मां ने डेरा सच्चा सौदा, सिरसा से नाम शब्द भी लिया हुआ था। एक रात अचानक वो नाम सिमरण करते हुए इतनी ध्यान मग्न हो गई कि उनके भीतर चल रहा मंत्र जाप जुबान पर आ गया। मैं जाग रहा था, उनको लगा उससे कुछ पाप हो गया क्योंकि नाम शब्द किसी को बताना नहीं होता। मैंने उनको इसके लिए पिता जी अर्थात डेरा गद्दीनशीन संत से मन में माफी मांगते हुए देखा। हालांकि, इसके पीछे का तर्क कुछ और है, मगर उनको हमेशा लगा कि उनसे पाप हो गया। गुप्त नाम शब्द गुरू शिष्य के बीच एक संबंध कायम करता है। जब आप समर्पण भाव से नत्मस्तक होते हैं, तो गुरू अपनी पूरी कृपा आप पर उडेलता है। शायद, इसलिए नाम शब्द को उजागर करने की मनाही होगी, जैसा मुझे सालों बाद अनुभव हुआ।

हालांकि, मैं जीवन में एक बार डेरा सच्चा सौदा सिरसा गया हूं, वो भी उसी समय के दौरान। उसके बाद मन में जाने का विचार तो कई बार उठा, मगर जाना नहीं हुआ। मेरे अन्य परिचित भी डेरे से जुड़े हुए हैं, जो सत्संग में, डेरे में निरंतर जाते हैं। उनके कारण डेरा सच्चा सौदा सिरसा के अच्छे पक्ष अब भी मेरे सामने आते रहते हैं। हालांकि, कथित बुरे पक्षों के लिए मीडिया संस्थान समय समय पर जानकारी देते हैं, जो आरोपों के कारण उभरकर सामने आते हैं। हालांकि, जिनको पहली दृष्टि से सत्य मान लेना भी मुश्किल है।

समय के साथ साथ डेरा सच्चा सौदा, सिरसा का दायरा विशाल होता चला गया। आज विश्व भर में डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी हैं, जो डेरा सच्चा सौदा में अपार आस्था एवं श्रद्घा रखते हैं। इसका अंदाजा 'एमएसजी-द मेसेंजर ऑफ गॉड' के ट्रेलर की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। हालांकि, 'एमएसजी-द मेसेंजर ऑफ गॉड' के ट्रेलर रिलीज होने के साथ साथ डेरा सच्चा सौदा पर मीडियाई एवं विरोधी लोगों के शब्दी हमले होने शुरू हो जाएंगे एवं कुछ जगहों पर तो फिल्म के रिलीज को लेकर विवाद होना शुरू भी हो चुका है।

मीडिया भी आखिर इस बात को किस तरह हजम करेगा कि एक अध्यात्म गुरू बड़े पर्दे पर एक फिल्मी नायक की तरह उतर रहा है। दूसरी बात तो यह है कि इस तरह का कार्य भारत में पहली बार हो रहा है। हालांकि, स्वयं को परमात्मा का संदेशवाहक बताना या घोषित करना नई बात नहीं।

मगर, जब जब समाज में किसी महान आत्मा ने स्वयं को परमात्मा या उसका दूत घोषित किया, तो समाज ने उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया, कुछेक लोगों को छोड़कर। इसका एक उदाहरण यूनान के संत मंसूर हैं, जिनको 26 मार्च, 922 ई. को अत्यंत क्रूर तरीके से जन समुदाय के सामने मृत्युदण्ड दे दिया गया। जानकार कहते हैं कि पहले उनके पैर काटे गए, फिर हाथ और अंत में सिर। इस दौरान संत मंसूर निरंतर मुस्कुराते रहे, मानो कह रहे हों कि परमात्मा से मेरे मिलने की राह को काट सकते हो तो काटो। आज हम जितने भी महान पुरुषों या मानव रूपी परमात्माओं को पूजते हैं, उनके जीवन को जब हम जानने का प्रयास करेंगे तो तत्कालीन समाज ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, क्योंकि समाज कभी नहीं चाहता कि उन सा दिखने वाला इंसान, उनसे अलग जाकर स्वयं को भगवान या उसके दूत की उपाधि दे। जबकि संत गुरमीत राम रहीम सिंह अभिनीत फिल्म का नाम ही 'परमात्मा का संदेशवाहक'।

और, भारतीय लोग केवल साधू संतों को जंगलों में भटकता हुआ देखना चाहते हैं। लोगों की मानसिकता है कि जो साधू संत स्वयं को अधिक से अधिक कष्ट देते हैं, उन पर भगवान की ज्यादा से ज्यादा कृपा बरसती है। जो उनकी तरह सुविधाजनक जीवन जीते हैं, भला वो कैसे साधू संत हो सकते हैं। हालांकि, मेरा मानना है कि साधु या संत तो हृदय से हुआ जाता है। राजा जनक अमीर था, मगर हृदय किसी साधू संत से कम विशाल न था। ईश्वर ने आपको जीवन दिया है, जीने के लिए दिया है। दूसरों की मदद करने, दूसरों को मार्ग दिखाने के लिए दिया है। साधू संत तो राग बैराग से दूर भीतराग में रहता है। जहां किसी चीज के प्रति न तो राग है न बैराग है। वहां तो मिट्टी भी सोना है और सोना भी मिट्टी है।

डेरा सच्चा सौदा को कुछ लोग रामपाल आश्रम की दृष्टि से देखने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, एक अदालत तक ने डेरा सच्चा सौदा को रामपाल आश्रम का दूसरा रूप होने तक की संज्ञा दे दी। जबकि डेरा सच्चा सौदा सिरसा का दूसरा सुनहरा पक्ष भी है। जिसके आधार पर आज डेरा सच्चा सौदा विश्व भर में अपने अनुयायी बनाए हुए है। वो है समाज कल्याण। जब जब भी किसी प्राकृतिक आपदा ने देश विदेश के किसी कोने को प्रभावित किया तो डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों ने घटनास्थल पर पहुंचकर पीड़ितों की मदद की है। उनको नया जीवन शुरू करने की प्रेरणा दी। गरीबों को घर दिए। विधवा एवं विकलांगों के घर बसाए। वेश्वावृत्ति में फंसी महिलाओं को आम धारा में लाने के लिए प्रयत्न किए। डेरा सच्चा सौदा से जुड़ने के कारण बहुत सारे लोगों ने शराब पीना तक छोड़ दिया, जिसके कारण बहुत सारे घर बर्बाद होने से बच गए। फिर रक्तदान की बात हो या किसी सफाई अभियान की बात हो, डेरा सच्चा सौदा, सिरसा ने रिकॉर्ड बनाए।

एक पुरानी कहानी है कि अगर आपने अपने घर की दीवार के साथ किसी फलदार पेड़ को लगाया हुआ है तो फलों के दिनों में पत्थरों के लिए तैयार रहें। डेरा सच्चा सौदा, सिरसा पर इल्जाम लगने का दौर उस समय शुरू हुआ, जब डेरा सच्चा सौदा तेजी के साथ विस्तार कर रहा था। समाज कल्याण के कार्यों में नए कीर्तिमान रच रहा था। लोग डेरे के कार्यों से प्रभावित होकर डेरा सिरसा के साथ जुड़ रहे थे। इससे बहुत सारे लोगों को नुकसान हो रहा था, जिसमें कुछेक धार्मिक संस्थान एवं शराब माफिया शामिल हैं।

Friday, December 19, 2014

'सोशल मीडिया' सबसे बड़ा हथियार

हालांकि, कुछ साल पहले सोशल मीडिया को परंपरागत मीडिया जगत भी अधिक महत्‍व नहीं देता था क्‍योंकि परंपरागत मीडिया की नजर में सोशल मीडिया अछूत था। मगर, समय के साथ साथ इसकी बढ़ती लोकप्रियता ने परंपरागत मीडिया को अपना नजरिया बदलने पर मजबूर कर दिया।

देश के ही नहीं, बल्‍कि विश्‍व के किसी भी कोने में होने वाली घटना पर लोगों की त्‍वरित प्रतिक्रिया के बढ़ते प्रचलन ने परंपरागत मीडिया को इसका अनुसरण करने तक विवश कर दिया। मानो कि किसी तानाशाह को उतारकर सिंहासन पर प्रजा बैठ गई। परिस्‍थितियों ने कुछ इस तरह करवट बदली कि परंपरागत मीडिया इसके प्रभाव में स्‍वयं को चलाने लगा। मीडिया की अधिकतर ख़बरें सोशल मीडिया के मूड को देखकर तूल पकड़ती हैं। यहां से ही टीआरपी का मसाला उठाया जाता है।

इसकी ताजा उदाहरण पिछले दिनों पेशावर के एक आर्मी स्‍कूल में हुए आतंकवादी हमले के दौरान देखने को मिली। सोशल मीडिया पर भारत की तरफ से पाकिस्‍तान के हादसे पर संवेदनाएं प्रकट की गई एवं उसके तत्‍काल बाद पाकिस्‍तान के साथ खड़े होने की लहर ने दम पकड़ा। मीडिया ने भी अपनी हमदर्दी प्रकट की। इसको देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खूब जांचा, जो सोशल मीडिया की ताकत का इस्‍तेमाल कर देश की सत्‍ता तक पहुंचे। 

पाकिस्‍तान के लोगों ने भारतीयों की इस संवेदना को गंभीरता से लिया। इसका नतीजा 18 दिसंबर 2014 को उस समय देखने को मिला, जब आतंकवाद विरोधी अदालत ने मुम्‍बई आतंकवादी हमले के मुख्‍य आरोपियों में शामिल जकीउर रहमान लखवी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया एवं पाकिस्‍तानी सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने इसका पुरजोर विरोध गया। इस जनता के दबाव के आगे सरकार ने जकीउर रहमान लखवी के खिलाफ उच्‍च अदालत में जाने की बात कही एवं मेंटिनेंस ऑफ़ पब्लिक ऑर्ड क़ानून के तहत उसको नजरबंद कर लिया। लखवी फ़िलहाल रावलपिंडी की अडयाला जेल में हैं।

इसको एक सकारात्‍मक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। जो काम शायद आज तक हमारे राजनेता नहीं कर पाए, वो सोशल मीडिया के जरिये कहीं न कहीं होता नजर आ रहा है। सोशल मीडिया के बारे में बहुत सारे किस्‍से हैं, जिनमें बिछड़ों के मिलने का जिक्र मिलेगा। अगर इन किस्‍सों की फेहरिस्‍त में दो पड़ोसी देशों के मिलन का किस्‍सा भी जुड़ जाए तो किस्‍सों की फेहरिस्‍त को चार चांद लग जाएं।

अगर दोनों देशों के लोग कुछ मामलों में एक जैसी यूं खुलकर अपनी प्रतिक्रिया दें, तो हो सकता है कि देश के हुकमरान भी जनता की आवाज को नजरअंदाज न कर पाएं, जो बरसों से होता आ रहा है, वो आगे न हो। उम्‍मीद करता हूं कि अलगे आने वाले कुछ बरसों में भारत पाकिस्‍तान के बीच सोशल मीडिया के जरिये एक अच्‍छा संवाद कायम हो। वहां की जनता और यहां की जनता एक दूसरे को समझने का प्रयास करें और उस समझ से उत्‍पन्‍न होने वाली तारंगें देश के हुकमरानों की रूह तक पहुंचें। हालांकि, यह खुला मंच होने के कारण कुछ शरारती तत्‍व इसका इस्‍तेमाल दोनों देशों के बीच दरार डालने के लिए कर सकते हैं। फिर भी सकारात्‍मक सोच रखना, सुनहरे कल की आशा को बनाए रखना है।

Thursday, December 18, 2014

पेशावर बाल संहार तो एक संकेत है

बात कहां से शुरू की जाए। सिडनी के उस कैफे से, जिसको एक सनकी व्यक्ति ने 16 घंटों तक बंधक बनाए रखा। या पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल से, जहां आतंकवादियों ने हैवानियत की नयी तस्वीर पेश की। या अतीत के झरोखे में उतरते हुए मुम्बई के आतंकवादी हमले से। अंतः बात कहीं से भी शुरू हो, बात आतंकवाद के संदर्भ में ही होगी।

आतंकवाद भारत या पाकिस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। यदि ऐसा न होता तो जी 20 सम्मेलन में जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद का मुद्दा उठाया तो इस मामले को इतनी गंभीरता से न लिया जाता। मगर, सवाल दूसरा भी है कि केवल बयानों से हम आतंकवाद को खत्म कर देंगे, जो रात दिन तेजी गति से जहर की तरह विश्व भर में फैलता जा रहा है। इसके लिए देशों के हुकमरान ही सबसे बड़े कारक हैं। चाहे वो किसी भी देश के क्यों न हो। पेशावर या मुम्बई हमलों में आधुनिक तकनीक के हथियारों का इस्तेमाल किया गया, क्या आतंकवादी संगठनों के पास बिना किसी सरकारी तंत्र की मदद के इनका आना संभव है। विशेषकर, उस समय जब विश्व भर के विकसित एवं विकासशील देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का समर्थन बड़े विश्व मंचों से खड़े होकर कर रहे हों।

जब मंगलवार को पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर आतंकवादियों ने हमला बोला। और स्कूल परिसर को लहू से लथपथ कर दिया। तब दुनिया भर के लोगों ने धर्म जात पात से ऊपर उठते हुए पाकिस्तानी पीड़ित परिवारों के साथ संवेदना प्रकट की। मगर, उसी समय पाकिस्तान में राजनीतिक दल अपनी चाल चल रहे थे, हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ साधने में व्यस्त था। जनता कराह रही थी। चीख रही थी। राजनीतिक अपने प्रोग्राम रद्द कर आम लोगों की तरह संवेदना प्रकट कर रहे थे। इस मामले से सबसे बड़ी बात तो देखने को मिली, वो यह थी कि किसी भी राजनीतिक दल ने तालिबान पर सीधा निशाना नहीं लगाया। नये पाकिस्तान की उम्मीद देने वाले पीटीआई नेता एवं पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने भी खुलकर तालिबान के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोला, जबकि तालिबानी समूह ने हमले की सीधे तौर पर जिम्मेदारी ले ली थी।

पाकिस्तानी नेताओं ने आतंकवाद की दो परिभाषाएं बना रखी हैं। एक अच्छा आतंकवाद और एक बुरा आतंकवाद। हालांकि, आतंकवाद आतंकवद ही होता है। आतंकवाद में अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता। पूरा विश्व उस पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई लड़ने की उम्मीद लगाए हुए है, जो दोहरी चाल चलने के लिए जाना जाता है। एक तरफ पाकिस्तान तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता दिलाने में हाथ पैर मार रहा है और दूसरी तरफ उसी को खत्म करने के लिए अभियान चलाने के दावे करता है। अगर, वर्ष 2015 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत आ जाती है तो उस स्थिति में पाकिस्तान हुकमरान अफगानिस्तान से सारे रिश्ते तोड़ लेंगे। इस उम्मीद करना बिल्कुल बेईमानी होगा। पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का दावा करता है, क्योंकि उसको इस दावे के बदले में विदेशों से सहायता राशि के नाम पर बड़े पैमाने पर धन मिलता है। इस धन से हुकमरानों का जीवन चलता है। और सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारना किसी के लिए सरल कार्य नहीं है।

अभी पेशावर में हुए हमले के दौरान मारे गए बच्चों के अभिभावकों की आंखों से आंसू थमे भी नहीं थे कि मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के मुख्य आरोपियों में से एक लश्कर-ए-तोएबा के कमांडर जकीउर रहमान लखवी को आतंकवादरोधी अदालत ने पांच लाख रुपये के मुचलके पर जमानत दे दी। हालांकि, विरोध के बाद वहां की सरकार ने इस मामले में अपना विरोध दर्ज करवाने की बात कही है। मगर, विरोध करने का मतलब ही क्या है, यदि पाकिस्तान दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादियों में शुमार जमात उद दावा चीफ हाफिज सईद को संरक्षण देना बंद नहीं कर सकता है।

इस मामले में भारतीय सरकारें भी कम नहीं हैं। जो हर आतंकवादी हमले के बाद कड़े जवाब देने की बात करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जीरो कार्रवाई होती है। पेशावर में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत के बड़े शहरों में अलर्ट जारी कर दिए गए। मगर यह तो एक परंपरागत कार्रवाई है। पूर्ववर्ती सरकारें भी तो इस तरह के कदम उठाती रही हैं। नया कुछ भी तो नहीं है। सवाल तो यह उठता है कि आखिर एक दिन के अलर्ट से स्थितियों में कितना परिवर्तन आएगा। क्या कुछ दिनों का अलर्ट पूरे देश को सुरक्षा का विश्वास दिला सकता है। विशेषकर, उस स्थिति में जब देश की संसद से लेकर मुंबई के ताज होटल तक भी आतंकवादियों की पहुंच से अछूते नहीं रह पाए। एकाध सूचना के बाद पूरे देश में अलर्ट घोषित कर सरकार सोचती है कि उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है।

दरअसल, रेलवे स्टेशन, बस स्‍टेंड व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगे कैमरे ख़राब होने के समाचारों पर स्थानीय प्रशासन एक कदम तक नहीं उठता है। हां, सरकार के अलर्ट के बाद दायित्व के नाम पर आम नागरिकों के बैग जरूर टटोल लिए जाते हैं। भारत को केवल कश्मीर के रास्ते से ही ख़तरा नहीं, बल्कि भारत को समुद्र से, बंग्लादेश से, चीन से एवं म्यांमार से लगती सीमाओं से भी ख़तरा है।

एक अन्य ख़तरा हिंदूवादी संगठन पैदा कर रहे हैं, जो पूरे देश को ही नहीं, विश्व के अन्य देशों को भी भगवा पहनाने पर तूले हुए हैं। इन संगठनों को लेकर सरकार की स्थिति पाकिस्तानी की सरकार जैसी है, जो न तो इन संगठनों का खुलकर विरोध कर सकती है और नाहीं इनको पनपे में मदद करने के हक में है। यदि सरकार ने समय रहते इन संगठनों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो पाकिस्तान की तरह देश में भी चरमपंथी संगठनों के उदय को कोई नहीं रोक सकता। अंजाम तो हम पेशावर में देख चुके हैं।

Tuesday, December 16, 2014

पेशावर हमला - क्रूरता की हद

इस्‍लाम के ठेकेदारों को आज एक बार इंटरनेट पर आकर देखना चाहिए, उन्‍होंने जिन पर गोलियां चलाई, वो इस्‍लामी मजहब से संबंध रखते हैं, मगर इस हादसे के बाद, जिन लोगों के दिलों को चोट पहुंची, वो सच्‍चे इस्‍लामी थे, वो सच्‍चे हिंदू थे, वो सच्‍चे ईसाई थे, असल बात कहूं तो वो सच्‍चे मानववादी थे।
जिनको धर्म के असली अर्थ पता नहीं, वो हमेशा धर्म के लिए मुसीबत बनते हैं, चाहे वो हिंदू धर्म से संबंध रखें, चाहे इस्‍लाम से या किसी अन्‍य से।
मुझे मोहम्‍मद, जीसस, राम, कृष्‍ण, महावीर, बुद्ध, गुरू नानक देव में कहीं फर्क नजर नहीं आता, मगर उनके मानने वालों को देखता हूं, तो अक्‍सर सोचता हूं, कहीं नेटवर्क में समस्‍या है, कहीं तो बड़ी दिक्‍कत है ?
या फिर धर्म में खामियां हैं। असल बात तो यह है कि हम उन महान आत्‍माओं की आढ़ में अपने के लिए नया संसार बना लेते हैं। हम उन महान आत्‍माओं से आगे निकलने के चक्‍कर में धर्म के सही रास्‍तों को ख़राब कर रहे हैं।

कट्टरता किसी भी धर्म को बर्बाद कर देती है। यदि किसी धर्म को विस्तार देना हो, तो उसको सरल एवं उदार बनाना पड़ता है। धर्म जितना जटिल होगा, उतना कठिन होता चला जाएगा एवं छोटा होता चला जाएगा। उसकी कई नई शाखाएं पैदा हो जाएंगी, जो आपस में टकराकर टूटती बिखरती रहेंगी। जो तालिबान ने पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी स्कूल में किया, वो उसी धर्म के लोगों की आस्था को चोट करने वाला था। 
मुझे नींद नहीं आ रही, क्‍या बीत रही होगी, जिनके सपनों की चिता जेहाद के नाम पर जला दी गई।

गोडसे वर्सेस गांधी एट सर्कल

भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने नत्थुराम गोडसे की प्रशंसा करने के बाद माफी मांगते हुए मामले को रफा दफा करने का प्रयास किया। मगर, यह प्रयास सफल होता नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि नत्थुराम गोडसे की शुरूआती संस्था हिंदू महासभा अब चाहती है कि देश के किसी बड़े शहर में गोडसे की प्रतिमा लगाई जाए।

इसके लिए हिंदू महासभा केंद्र सरकार को पत्र लिखने का मन बना चुकी है क्योंकि नत्थुराम गोडसे की प्रतिमा बनकर तैयार हो चुकी है, जिसका जुलाई महीने में आर्डर दिया गया था। इस संगठन ने का कहना है यदि सरकार उनको स्वीकृति नहीं देती तो वो इस प्रतिमा को अपने परिसर में लगाएंगे।

मान लेते हैं कि हिंदू महासभा की मांग केंद्र सरकार ने मान ली, क्योंकि हिंदू सभा से आरएसएस निकला है, और भाजपा आरएसएस का एक राजनी​तिक वेंचर है। इस प्रतिमा को लगाने के लिए जगह की भी अलाटमेंट भी कर दी और गलती से यह प्रतिमा गांधी की प्रतिमा के सामने किसी सर्कल पर लग गई । और उसका धूम धाम से अनावरण भी हो गया। भाजपा के किसी सांसद ने फूल मालाएं अर्पित करने के बाद मीडिया में आकर बाद में माफी भी मांग ली।

अब सवाल तो यह उठता है कि प्रतिमा के नीचे नत्थुराम गोडसे के संदर्भ में क्या लिखा जाएगा ? यदि नत्थुराम गोडसे की महिमा लिखी जाती है तो महात्मा गांधी की प्रतिमाओं का क्या ? जो वर्षों से किसी न किसी सर्कल चौराहे पर खड़ी प्रदूषण की मार झेल रही हैं। जिनकी याद प्रशासन को केवल जयंती एवं पुनःतिथि पर आती है। वैसे तो किसी महान व्यक्तित्व को प्रतिमा की जरूरत नहीं होती। प्रतिमा, केवल प्रतीक होती है, ताकि प्रतिमा को देखकर किसी के अनजान मन में उसके बारे में जानने जिज्ञासा उठे, और वो उस प्रतिमा के पीछे के व्यक्तित्व को जाने।

मगर हिंदू महासभा नत्थुराम गोडसे को किसी तरह पेश करेगी। सबसे बड़ा सवाल है। यदि नत्थुराम गोडसे का व्यक्तित्व एक स्वतंत्रता सेनानी मोहनदास कर्मचंद गांधी से बड़ा हो गया तो राष्ट्रपिता की नोटों पर छपी तस्वीर पूरे राष्ट्र को मुंह चिढ़ाएगी। अहिंसा के पुजारी के रूप में महात्मा गांधी को भारत के साहित्यकारों ने विश्व भर में प्रसिद्घ कर दिया, मगर उसकी हत्या के दोषी की प्रतिमा जब विदेशी सैलानी सड़क पर देखेंगे, तो अपने मन से सवाल जरूर पूछेगा कि दोनों में से सही कौन और गलत कौन है ?

अंतः किसी दिन अचानक दोनों प्रतिमाओं के बीच संवाद होना शुरू हो गया तो, शायद बापूजी कहेंगे, 'गोडसे, आज तुम मेरे सामने खड़े हो, यदि तुम चाहो तो आज फिर से मेरी मूर्ति को ध्वस्त कर सकते हो, मेरे शरीर की भांति। मगर मेरे विचार तो मुक्त पक्षियों की तरह सीमाएं पार जा चुके हैं। आज पूरा विश्व मेरे विचारों को सम्मान देता है। विचारों को लेकर विरोध कहां नहीं होता, तुम भी लोगों में शामिल हो, जो मुझे पसंद नहीं करते हैं। इससे अधिक फर्क नहीं पड़ता, मगर तुम्हारी गोली ने मुझे और तुझे अमर कर दिया, फर्क इतना है कि तुम्हारी विचार धारा को मानने वाले तुम को सही कहते हैं, और मेरे विचारों को मानने वाले मुझे,।'

Monday, December 15, 2014

ममता बनर्जी के नाम एक खुला पत्र

पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मेरा नमस्कार! आप अपनी सरकार के परिवहन मंत्री मदन मित्रा की गिरफ्तारी के बाद एक घायल शेरनी की तरह बर्ताव कर रही हैं। हालांकि, राजनीतिक आक्रामकता 'कानूनी लड़ाई' का तोड़ कभी नहीं हो सकती। देश का कानून सबूत मांगता है, भावनाएं इसके लिए किसी काम की नहीं हैं। आपको इस तरह की आक्रामकता से बचने की जरूरत है एवं कानूनी कार्यवाही का सम्मान करते हुए राज्य की प्रगति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि आप इसी तरह सड़कों पर उतर कर कानूनी कार्यवाही को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं, तो आप स्वयं की जुझारू महिला नेता वाली छवि को धूमिल करते हैं।

एक मुख्यमंत्री होने के नाते ममता बनर्जी को संयम नहीं खोना चाहिए, बल्कि नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को ध्यान में रखना चाहिए, जिस सरकार की तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री माया कोडनानी को जेल की यात्रा तक करनी पड़ी।

जब आप अचानक उग्र भाव में आकर कहती हैं, ''यदि किसी केंद्रीय मंत्री को पश्‍चिमी बंगाल में गिरफ्तार कर लिया, तो आप क्‍या करेंगे ?'। उस समय  आप लोकशाही एवं नौकरशाही को जोड़ने का प्रयास करते हुए वशीकरण का संकेत देती हैं। जो लोकतंत्रिक देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। सत्‍ता के बल पर नौकरशाही का इस्‍तेमाल करना, लोकशाही वाले देश में कलंक से अधिक कुछ नहीं। इससे तो राजनेता वर्ग को बचने की जरूरत है। मगर, लानत है कि पूरा राजनीतिक सिस्‍टम इस की चपेट में है।

आप राजनीति में बरसों से हैं। आपने अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत एक छात्र नेता के रूप में की। आपको अच्छी तरह पता है कि राजनीतिक पार्टियां किस तरह से एक दूसरे को दबाने का प्रयास करती हैं। इसमें संदेह नहीं कि एक मजबूत इमारत को गिराने के लिए उसके मजबूत स्तम्भों को हिलाया जाता है, ताकि इमारत जमीन पर गिरकर दम तोड़ दे।

आपको एक बात याद रखनी होगी कि कानूनी कार्यवाही अपनी जगह और राजनीतिक युद्घ अपनी जगह है। एक आम कहावत है कि प्रेम और युद्घ में सब कुछ जायज होता है। इसलिए, आपको धैर्य रखना होगा। भारतीय कानून का सम्मान करना होगा। कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए कानूनी तरीकों से लड़ना जरूरी रहता है।

यदि आपके मंत्री इस मामले से स्पष्ट छवि के साथ बाहर निकलते हैं तो आपकी पार्टी का आधार मजबूत होगा, यदि ऐसा नहीं होता तो जनता के साथ इंसाफ होगा एवं आप जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं एवं जनता के साथ खड़े रहना आपका पहला दायित्व है।
हालांकि, समझ में आता है कि मदन मित्रा के साथ आपका बरसों पुराना नाता है एवं मदन मित्रा त्रिमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं। छात्र राजनीति में आप एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी भी रहे और समय ने पश्चिमी बंगाल के दो नेताओं को राजनीति के एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया।

रिश्ते कितने ही करीबी क्यों न हों, रिश्ते किसी भी कानूनी कार्यवाही को प्रभावित करने का अधिकार नहीं देते हैं। आप अपने स्तर पर कानूनी कार्यवाही में सहयोग करती हैं, ताकि देश की जनता को इंसाफ मिल सके एवं यदि आपके नेता साफ सुथरे हैं तो उनको क्लिनचिट मिल सके।

ख़बर मिली है कि त्रिमूल कांग्रेस के पूर्व सांसद सुचारू रंजन हलदर ने बीजेपी का दामन थमा लिया है। आपको सबसे पहले अपने पार्टी बिखराव को रोकना होगा। हो सकता है कि कानूनी कार्यवाही में मदन मित्रा जीत जाएं, एवं जमीनी लड़ाई में आपकी पार्टी बुरी तरह हार जाए।

इंस्टेंट का जमाना है

देश ने जनादेश देकर जादूगर नहीं, प्रधानमंत्री को चुना है। यह बात में खुले मन से स्वीकार करता हूं। मगर, एक प्रधान मंत्री से जादूगर सी अपेक्षाएं किस तरह पनपी, यह भी अपने आप में एक सवाल है। चुनावों के समय रैलियों में हो रहे तबाड़ तोड़ लाजवाब शब्दों से रंगे भाषण भारतीय जनता में नयी ऊर्जा का संचार कर रहे थे। भाषणों में इस्तेमाल हो रहे जुमले अमिताभ बच्चन की पुरानी फिल्मों के संवादों की तरह लोगों के हृदयों को छू रहे थे, जिनको कुछ पेशेवर संवाद लेखकों ने लिखा था। भाषण में प्रस्तुत किए जा रहे गलत तथ्य भी सत्य मालूम पड़ रहे थे।

भारतीय राजनीति के पटल पर एक नायक जनता को अपने संवादों से आकर्षित कर रहा था। अब लालू प्रसाद यादव के गुदगुदाने वाले जुमले मजा न दे रहे थे। अब जनता एक बार फिर एंग्री यंगमैन को पसंद करने लगी थी, जो सीधे सीधे विरोधी पार्टियों को ललकार रहा था। चुनावों ने अचंभित कर देने वाले नतीजे दिए, यह उसी तरह के नतीजे थे, जैसे चुटकले रजनीकांत को लेकर बाजार में प्रचलित हैं।

रजनीकांत को बड़े पर्दे पर आप शौचालय में जाते हुए न देखेंगे, क्योंकि उसके लिए निर्देशक को गुदगुद या चक्रवर्ती तूफान का सृजन करना होगा अथवा रजनीकांत का अस्तित्व खो जाएगा। रजनीकांत की छवि को अति काल्पनिक चीजों से इतना जोड़ दिया गया है कि अब उसको साधारण कल्पना में देखना बेईमानी होगा क्योंकि साधारण चीजें तो तुषार कपूर भी कर लेता है। अब रजनीकांत अगर क्रिकेट के मैदान में खड़ा शॉट मारे तो गेंद मंगल गृह पर होनी चाहिए, अन्यथा छक्का तो बाउंडरी के पार युवराज सिंह भी लगा सकता है।

प्रचार कुछ भी कर सकता है। आपको किसी भी छवि में बांध देता है। कुछ इस तरह का देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुआ है। मीडिया प्रचार ने जनता के मन में इस तरह की छवि को मजबूत कर दिया कि नरेंद्र मोदी के हाथ रखने से लौह भी सोने में बदल जाएगा। अमेरिका उसके सामने नत्मस्तक हो जाएगा। पाकिस्तान तो किसी भी कानून को लागू करने से पहले नरेंद्र मोदी की सही मांगेगा।

जब आपका इतना बड़ा कदम बना दिया जाए, तो आपको उसके अनुरूप भी आगे बढ़ना पड़ता है, आप अपनी तुलना साधारण लोगों से नहीं कर सकते। टेलीविजन विज्ञापनों के बाद बच्चे भी पांच मिनट में बनने वाली मैगी चाहते हैं, उनको भूख मिटाने के लिए दस बीस मिनट बैठकर खाने के लिए इंतजार करना मुश्किल है। सेल्फी भी हाथों हाथ फेसबुक पर आपकी उपस्थिति संबंधित लोगों को बताती है। इस तेजी से बदलते समय में अब आप अपनी रफ्तार कम नहीं रख सकते।

अब मुम्बई या अन्य भीड़ भाड़ वाले क्षेत्रों में दूसरों की उम्मीद से कम स्पीड पर गाड़ी नहीं दौड़ा सकते, क्योंकि वहां भीड़ एक दूसरे पर जल्द चलने का दबाव बनाती है। अगर इंस्टेंट का लोचा न होता तो शायद बुलेट ट्रेन की भारत को अभिलाषा न होती, शायद लोग पैदल धीमी गति से अपने कार्यस्थलों की तरफ बढ़ रहे होते।

चुनावों से पहले भाजपा इतनी तेजी से हमले बोल रही थी, तो जनता को लगता यह सुपर फास्ट ट्रेन सबसे बेहतर है। कांग्रेस जैसी पैसेंजर गाड़ी में सफर करना मुश्किल है। उसी तरह, जिस तरह आज वाट्सएप एवं फेसबुक पर मोबाइल के जरिए उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए टू जी का इस्तेमाल करना। नई सरकार है नई जनता है। अब आप बातों से लोगों का पेट नहीं भर सकते। आपको नतीजे दिखाने होंगे, अन्यथा जनता मोबाइल पोर्टबिलिटी की अवधारणा से अवगत हो चुकी है। विज्ञापन देखने के बाद एक बार तो सर्फ एक्सल खरीद सकती है, मगर टाइड सी सफेदी देने पर टाइड को खरीदना ही बेहतर समझती है। आप बुलेट ट्रेन हैं, इसलिए पैसेंजर ट्रेन का मजा जनता को आनंद न देगा। इंस्टेंट का जमाना है। अब गुजरात में भी जनता इंस्टेंट खमण ढोकला बाजार से लाना पसंद करने लगी है। उसको भी माथा पच्ची एवं घंटों इंतजार करना पसंद नहीं आ रहा है। हालांकि इंस्टेंट में मेहनत वाला मजा नहीं होता, मगर इंस्टेंट की लत लग चुकी है। 

Friday, December 12, 2014

शेनाज ट्रेजरीवाला का खुला पत्र चर्चा में

फिल्मी दुनिया से जुड़ी शेनाज ट्रेजरीवाला ने आज देश की कुछ महान हस्तियों के नाम एक पत्र लिखा है। इस पत्र में शेनाज ने अपने जीवन के कुछ कड़वे अनुभव लिखे एवं देश की सरकार से सुरक्षा की मांग की है। यह पत्र परंपरागत एवं आधुनिक मीडिया में वायरल हो चुका है।

इसका वायरल होना, शेनाज ट्रेजरीवाला के स्वर एवं दर्द को सरकार तक पहुंचेगा। शेनाज ने बचपन से जवानी की दहलीज तक आते आते जो सहन किया, उसको इस खत के जरिये सामने रखा। चाहे सब्जी मार्किट में हुई छेड़खानी की घटना हो या रेलगाड़ी में किशोर सहेली के साथ हुआ रेप हो।

शेनाज का पत्र की कई महिलाओं के भीतर एक शेनाज को जिन्दा करने में मदद करेगा क्योंकि इंटरनेट की दुनिया में महिलाओं की भागीदारी तेजी के साथ बढ़ रही है। यकीनन, यह पत्र पुरुषों की मानसिक पर भी जोरदार चोट करने में सफल होगा। फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा ने जब अपनी बात सोशल मीडिया पर बेबाक रखी तो उनके समर्थन में एक बड़ा समूह सामने आया। इसमें संदेह नहीं कि इस तरह की अभिव्यक्तियां समाज की मानसिकता पर चोट करती हैं। मगर, अफसोस कि इस तरह की बातें, उन लोगों तक पहुंच नहीं पाती, जहां तक इनका पहुंचना अति जरूरी है।

शेनाज के पत्र से सरकार जागेगी कि नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन यह पत्र लड़कियों को आवाज बुलंद करने के लिए प्रेरित करेगा। अब लड़कियां शेनाज की तरह सालों तक किसी घूंटन में नहीं जीवन बसर करेंगी। शायद, यह होना भी चाहिए। देश के कड़े कानून से ज्यादा जरूरी है, सामाजिक नजरिये को बदलने की जरूरत है। लड़कियों को रेप जैसे मामलों में थोड़ी सी हिम्मत दिखाने की जरूरत रहेगी क्योंकि शारीर को पर्स की तरह घर पर रखकर बाजार में निकलना संभव नहीं है।

वहीं, विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण मानव की प्रवृत्ति है, मगर जब यह प्रवृत्ति अपनी सीमाएं लांघती है तो बाढ़ की तरह नुकसानदायक साबित होती है। इस मामले में आप एक श्रेणी निश्चित नहीं कर सकते, क्योंकि इस देश में पिता बेटी से, भाई बहन से, देवर भाभी से, बेटा मां से, नौकर मालिकन से, शिक्षक छात्र से रेप कर जाता है। जहां नीयत बदनीत हुई, वहीं रेप सा हादसा घटित हो सकता है।

इसके बाद का जो ख़तरा है, वो है समलैंगिक रेप का ख़तरा। सरकार को इस तरह के मामलों में अब कठोरता दिखानी होगी। डंडे का डर बरकरार करना जरूरी होता जा रहा है। हालांकि, कानून की कठोरता भी गुनाह को होने से रोक नहीं सकती, लेकिन इससे रेप दर में कमी आने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इसका विपरीत नतीजा यह भी हो सकता है कि पीड़ित को इज्जत के साथ जान से भी हाथ धोना पड़े।

हमारे देश में विरोधाभास सबसे बड़ी कमजोरी है। एक तरफ पूरा समाज यौन संबंधों की खुलकर बात करने से कतराता है। दूसरी तरफ, बंद कमरों में बड़े पर्दे पर उसका लुत्फ लेने से पीछे नहीं हटता। इस साल हिन्दी फिल्म जगत ने पूरी तरह सेक्स बेचा है। करोड़ों रूपए कमाएं हैं।

Wednesday, December 10, 2014

उबर पर प्रतिबंध उचित ?

मेरी टैक्सी और आटो रिक्शा का भाड़ा एक सा है। वो अपना पर्स टेबल पर रखते हुए कहती है। सफर भी आनंददायक है। वो मेरे घर के बाहर मेरे आने तक इंतजार करती है। मुझे आने से पहले सूचित किया जाता है। यह शब्द किसी अमेरिकन या चीनी महिला के नहीं, बल्कि एक आम भारतीय महिला के हैं, जो एक कार्यालय में काम करती है एवं टैक्सी के जरिये कार्यालय पहुंचती है, यदि टैक्सी उसके आटो रिक्शा के भाड़े से मेल खा रही है।

उसी तरह की एक टैक्सी में एक लड़की के बलात्कार हो गया, जो इस महिला की तरह एक निजी कंपनी में कार्यरत थी। सरकार ने उस टैक्सी की कंपनी उबर को बैन करने के लिए मन बना लिया। शायद सरकार ने यह कदम जल्दबाजी में लिया, ताकि लोगों को लगे कि सरकार कुछ काम कर रही है। मगर सोचने वाली बात है कि निजी कारों में रेप होते हैं, तो क्या सरकार अब निजी कारों को बैन करेगी।

क्या टैक्सी को बैन कर देने से रेप के मामले रूक जाएंगे ? मेरे हिसाब से तो बिल्कुल नहीं। रेप कहां नहीं होते, रेप तो लिफ्ट में भी हो जाता है ? यदि लिफ्टों को बैन कर दिया, तो मुम्बर्इ, अहमदाबाद, दिल्ली, बेंगलुरू जैसे शहरों में बनी उुंची उुंची इमारतों में रहने वाले लोगों का क्या होगा ?

इस तरह के मामलों में जल्दबाजी में नहीं, बल्कि ठोस एवं कारगार कदम उठाने की जरूरत होती है। यह दिमागी लोचा है, यहां काम वासना का स्तर चरम पर पहुंचा, वहीं रेप हो जाएगा, लेकिन हम किसी किसी चीज को बैन करेंगे। उबर टैक्सी कल तक न थी। तब भी दिल्ली में एक निर्भया बनी। उसको इंसाफ दिलाने के लिए जनता सड़कों पर उतरी। वो जनाक्रोश कांग्रेस सरकार को ले डूबा।

जिस तरह देश के अंदर समलैंगिक लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, उसको देखते हुए देश की सरकार को महिला सुरक्षा पर ही नहीं, बल्कि पुरुष सुरक्षा पर भी ध्यान देने की जरूरत रहेगी। सदियों से यह देश जिस चीज को दबाते आया है। उसके दुष्प्रभाव अब देखने को मिल रहे हैं। देश की पीढ़ी को सेक्स के बारे में गलत तरीकों से जानकारी मिलती है। जो रेप के मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। देश के भीतर चलने वाले अश्लील फिल्मों के कारोबार को रोकने की जरूरत है। अश्लील साहित्य को प्रतिबंधित करने की जरूरत है। 

इंटरनेट की दुनिया ने यौन संबंधों से जुड़े साहित्य को लोगों तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभायी। आज दस से बारह साल के बच्चे इंटरनेट के जरिये अश्लील साहित्य को पढ़ एवं देख रहे हैं। हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि जैसा निगलेंगे, वैसा उगलेंगे। 

'पुरखों की घर वापसी' कहूं या प्रलोभन में नाम परिवर्तन

सुना है कि पुरखों की घर वापसी अभियान यूपी बिहार में तेजी के साथ चल रहा था। चल सकता है क्योंकि इसका नेतृत्व संघ परिवार कर रहा है। धर्म परिवर्तन को पुरखों की घर वापसी का नाम दे दिया गया, ताकि देश में धर्म परिवर्तन के नाम पर कहीं हल्ला न हो जाए।

मेरे मन में यकायक एक सवाल उस समय उठ खड़ा हुआ, जब पुरखों की घर वापसी के दौरान एक युवक ने मीडिया प्रतिनिधि से कहा, ''हमारे हितों की हमेशा अनदेखी की गई है, अब हमें लगता है कि देश की सरकार अब हम को राहत मुहैया करवाएगी।''

इस नौजवान के लिए धर्म परिवर्तन अधिक मयाने नहीं रखता, इसके लिए सुविधाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं। अगर मैं उसके संवाद को गहनता से समझने की कोशिश करूं। इस युवक के शब्द भारत की सरकारों के मुंह पर जोरदार चांटा भी हैं, विशेषकर स्वयं को धर्मनिष्पक्ष का तमगा देने वाली सरकारों के मुंह पर।

दूसरा सवाल, इस संवाद से उठता है कि यदि युवक के पास सुविधाएं होती, यदि उनके साथ बेगानों सा व्यवहार न होता, तो क्या पुरखों की घर वापसी का विचार उनके जेहन में उतरता। बिल्कुल नहीं। एक अन्य बात, जो कहने जा रहा हूं, वो यह है कि ईसाइयत ने विश्व भर विशेषकर भारत यूं ही पैर नहीं पसारे, इसका मुख्य कारण था, असहाय लोगों की बड़ी जमात, जिनको सहारे की जरूरत थी, उनको हमदर्दी की जरूरत थी। मौत के किनारे खड़े व्यक्ति के लिए जीवन से बड़ा धर्म कुछ नहीं है तथा भूखे के लिए रोटी से बड़ा शायद ही अन्य धर्म हो।

पुरखों की घर वापसी से स्पष्ट होता है कि इनके पूर्वज जीवन जीने की लालसा में अपना धर्म छोड़कर दूसरे के धर्म में गए होंगे, तभी तो पुरखों के घर वापसी हो रही है। आज यह लोग जिस धर्म में प्रवेश कर रहे हैं, कल को उसकी सत्ता न नहीं, एवं जिस धर्म को छोड़कर आ रहे हैं, उनके हाथ में सत्ता आ गयी, तो फिर पुनः वापसी। शायद सदियों से यूं चलता आया हो, क्योंकि मानव धर्म के साथ कभी पैदा नहीं हुआ, वरना विश्व में आज हजारों धर्म संप्रदाय नहीं होते।

आज जो लोग पुरखों की घर वापसी के जरिये हिंदु धर्म में प्रवेश कर रहे हैं, क्या हिन्दु समाज उनको दिल से अपनाने के लिए तैयार रहेगा, क्या उनके लिए अपने घरों के दरवाजे उसी तरह खोलेगा, जिस तरह अन्य हिन्दु या अपनी बिरादरी के लोगों के लिए खोलता है या फिर यह लोग बीच अधर में लटककर रह जाएंगे। जिस युग में हम जीवन बसर कर रहे हैं, वहां तेजी से एक नयी जात बिरादरी जन्म ले रही हैं, जिसको आर्थिक रूप से देखने की जरूरत है, जहां अमीर तथा गरीब हैं, जहां पैसा धर्म होने जा रहा है। रिश्ते से पहले जात बिरादरी नहीं, अब आर्थिक स्थिति महत्वपूर्ण होने लगी है।

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